Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 42
________________ ७८ छहढाला का सार चौथा प्रवचन उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कन्याकुमारी, पूर्व में मणिपुर और पश्चिम में द्वारिका आदि दशों दिशाओं की मर्यादा सुनिश्चित कर लेना और उसके आगे जीवनपर्यंन्त नहीं जाना दिव्रत है। जीवनपर्यंत के लिये की गई दिग्वत की मर्यादा में काल की सीमा बाँधकर दस दिशाओं में क्षेत्र को और अधिक सीमित करते जाना देशव्रत है। दिग्वत में सम्पूर्ण भारतवर्ष के बाहर न जाने की प्रतिज्ञा जीवनपर्यंत के लिये की थी; अब देशव्रत में एक वर्ष तक राजस्थान के बाहर नहीं जाऊँगा, एक माह तक जयपुर जिले के बाहर नहीं जाऊँगा, एक दिन तक अपने मुहल्ला के बाहर नहीं जाऊँगा और एक घंटे तक मंदिर के बाहर नहीं जाऊँगा - इसप्रकार मर्यादा को घटाते जाना देशव्रत है। दिव्रत और देशव्रत लेने का प्रयोजन यह है कि इसकी मर्यादा के बाहर होनेवाले पाँच पापों में हमारी भागीदारी नहीं होगी तो हमारे ये अणुव्रत सीमा के बाहर महाव्रत जैसे हो जायेंगे; पर ध्यान रहे इसके कारण हम महाव्रती नहीं हो सकते; क्योंकि महाव्रती होने के लिये प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होना जरूरी है; जो गृहस्थ अवस्था में संभव नहीं है। तीसरा गुणव्रत है अनर्थदण्डव्रत । अर्थ माने प्रयोजन और अनर्थ माने बिना प्रयोजन । दण्ड माने हिंसादि पाँच पाप । व्रत माने त्याग । इसप्रकार अनर्थदण्डव्रत का अर्थ हुआ बिना प्रयोजन पाँच पापों का त्याग । ये अनर्थदण्डव्रत पाँच प्रकार के होते हैं - १. अपध्यान, २. पापोपदेश, ३. प्रमादचर्या, ४. हिंसादान और ५. दुःश्रुति। किसी की धनहानि, किसी की जीत, किसी की हार हो जावे - इसप्रकार चिन्तन अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है और इसका त्याग करना अपध्यानत्याग नामक अनर्थदण्डव्रत है। ऐसे व्यापार और कृषि आदि कार्य, जिनके करने में बहुत हिंसादि पाप उत्पन्न होते हैं; उन्हें करने के लिए उपदेश देकर प्रेरित करना पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड है और इसका त्याग पापोपदेशत्याग नामक अनर्थदण्डव्रत है। प्रमाद के वश होकर भूमि, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप एकेन्द्रिय जीवों की विराधना करना प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है और इनकी विराधना नहीं करने का व्रत लेना प्रमाचर्या नामक अनर्थदण्डव्रत है। जो वस्तुयें हिंसादि पापों में ही काम आती हों, उन वस्तुओं का दान देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड है और उन वस्तुओं का दान नहीं करने का व्रत लेना हिंसादान नामक अनर्थदण्डव्रत है। जिस कथा-वार्ता में, चर्चा में राग-द्वेष पैदा होते हों; उनकी चर्चा करना दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है और इसप्रकार की कथा, चर्चावार्ता नहीं करने का व्रत लेना दुःश्रुतित्याग नामक अनर्थदण्डव्रत है। अब संक्षेप में चार शिक्षाव्रतों की चर्चा करते हैं - धर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये । परव चतुष्टय माहिं, पाप तज प्रोषध धरिये ।। भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवार। मुनि को भोजन देय, फेर निज करहिं अहारै ।। हृदय में समताभाव धारण करके सदा सामायिक करे, दो अष्टमी और दो चतुर्दशी - इसप्रकार चार पर्यों में पापों को छोड़कर प्रोषधोपवास करे, एक बार भोगने में आनेवाले भोग और बारंबार भोगने में आनेवाले उपभोग पदार्थों की सीमा बाँधकर उनसे ममत्व का निवारण करे और मुनिराजों को आहार देकर फिर स्वयं आहार करे - ये चार शिक्षाव्रत हैं। (40)

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