Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 32
________________ छहढाला का सार ही नहीं सकते। अधिक क्या कहें, इस सम्यग्दर्शन के बिना जो भी क्रिया की जायेगी, वह दुःखकारी ही सिद्ध होगी। प्रश्न : एक ओर यह लिखा है सम्यग्दृष्टि प्रथम नरक को छोड़कर शेष छह नरकों में नहीं जाते। इसका अर्थ यह हुआ कि वे पहले नरक में जाते हैं, जा सकते हैं, राजा श्रेणिक सम्यग्दृष्टि होते हुये भी नरक गये भी हैं; वही दूसरी ओर यह लिखा कि वे नपुंसक नहीं होते, जबकि नारकी नियम से नपुंसक ही होते हैं। क्या यह विरोधाभास नहीं है ? उत्तर : बात यह है कि सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में नरकायु का बंध नहीं होता; अत: वे नरक में नहीं जाते - ऐसा कहना भी गलत नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में ऐसा ही लिखा है - सम्यग्दर्शनशुद्धाः नारकतिर्यङ्नपुंसकत्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुः दरिद्रतांच व्रजन्ति नाप्यवतिकाः।। जो प्राणी सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं; वे प्राणी अव्रती होने पर भी नारकी, तिर्यंच, नपुंसक और स्त्रीपने को प्राप्त नहीं होते; उनका जन्म नीचकुल में नहीं होता, वे विकृत अंगवाले नहीं होते, अल्पायु नहीं होते और दरिद्री भी नहीं होते। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन होने के बाद उक्त अवस्थायें प्राप्त हों - ऐसा पापबंध नहीं होता। वस्तुत: बात यह है कि यदि सम्यग्दर्शन होने से पहले नरकायुनरकगति बंध जावे तो बाद में सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी गतिबंध नहीं छूटता; हाँ आयुकर्म की स्थिति का अपकर्षण हो सकता है। यही कारण है कि राजा श्रेणिक को नरकायु की ३३ सागर की स्थिति बंधी, जो घटकर ८४ हजार वर्ष ही रह गयी। ८४ हजार वर्ष की स्थिति प्रथम नरक में ही होती है। इसलिए राजा श्रेणिक प्रथम नरक में १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक : ३५ तीसरा प्रवचन ही गये। जब नरक गये तो नपुंसक भी हुये ही हैं; क्योंकि नरकायु के साथ नपुंसक वेद भी बंध जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द अष्टपाहुड़ के दर्शनपाहुड़ और मोक्षपाहुड़ सम्बन्धी प्रकरण में सम्यग्दर्शन की महिमा समझाते हुये लिखते हैं - दसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति ।।' समत्तविरहिया णं सुट्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।।' किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।। (हरिगीत) दृग-भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना। हों सिद्ध चारित्र-भ्रष्ट पर दृग-भ्रष्ट को निर्वाण ना ।। यद्यपि करें वे उग्र तप शत-सहस-कोटी वर्ष तक। पर रतनत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व-विरहित साधु सब ।। मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। __ यह जान लोहे भव्यजन! इससे अधिक अब कहें क्या ।। जो पुरुष सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं; उनको कभी निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं; परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। तात्पर्य यह है कि चारित्र की अपेक्षा श्रद्धा का दोष बड़ा माना गया है। ____ जो मुनि सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे हजार करोड़ (दश अरब) वर्ष १. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड़, गाथा ३ २. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड़, गाथा ५ ३. अष्टपाहुड़ : मोक्षपाहुड़, गाथा ८८ (30)

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