Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 31
________________ छहढाला का सार तीसरा प्रवचन मामा के बड़प्पन से जोड़ा गया है। वस्तुत: बात यह है कि 'मैं ऊँचे कुल का हूँ, मैं ऊँची जाति का हूँ' - ऐसा मानकर अभिमान करना या 'मैं नीचे कुल का हूँ, मैं नीची जाति का हूँ' - ऐसा मानकर दीनता लाना कुलमद और जातिमद हैं। कुलमद और जातिमद के लिये किसी राजा का बेटा-भानजा होना जरूरी नहीं है। यहाँ राजा शब्द को प्रतीक के रूप में ही लिया गया है। अब तीन मूढ़ता और छह अनायतन की बात करते हैं - कुगुरु कुदेव कुवृष सेवक की, नाहिं प्रशंस उचरै हैं। जिन मुनि जिन श्रुत बिन, कुगुरादिक तिन्हैं न नमन करै हैं ।। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म और इनके सेवकों अर्थात् कुदेवसेवक, कुगुरुसेवक और कुधर्मसेवक - इन छहों की न तो मन से प्रशंसा करते हैं और न वचन से स्तुति करते हैं; क्योंकि ये छह अनायतन हैं, धर्म के आयतन (घर) नहीं हैं। ज्ञानीजन उक्त छह अनायतनों से दूर रहते हैं। जिनेन्द्रदेव, जिनवाणी और जैनगुरुओं के अतिरिक्त कुगुरु आदि को नमस्कार नहीं करते । ज्ञानी जीवों का यह तीन मूढ़ताओं का त्याग है। इसप्रकार निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन के निरूपण करने के उपरान्त सम्यग्दर्शन से सम्पन्न ज्ञानी का गुणगान करते हुये पण्डित दौलतरामजी कहते हैं - दोष-रहित गुण-सहित सुधी जे, सम्यग्दर्श सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं ।। गेही पै गृह में न रचे ज्यों, जल से भिन्न कमल हैं। नगर-नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल हैं।। जो सुधीजन पच्चीस दोषों से रहित और आठ गुणों (अंगों) से सहित सम्यग्दर्शन से सज्जित हैं; यद्यपि चारित्रमोह के वश होने से उनके रंचमात्र भी संयम नहीं है; तथापि देवेन्द्र उनकी स्तुति-वंदना करते हैं, गुणगान करते हैं। __ जिसप्रकार जल के बीच रहता हुआ कमल जल से भिन्न ही रहता है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि गृहस्थ हैं, घर में रहते हैं; पत्नीपरिवार के बीच रहते हैं; तथापि घर में रचते-पचते नहीं हैं। उनका प्यार तो नगर-नारी (वेश्या) के समान दिखावटी ही है; वे तो घर में उसीप्रकार निर्मल रहते हैं कि जिसप्रकार कीचड़ पड़ा हुआ सोना निर्मल रहता है। ध्यान रहे यहाँ सम्यग्दृष्टि के स्नेह की तुलना वेश्या से मात्र निर्लिप्तता की अपेक्षा ही की गई है। इसप्रकार इस ढाल को तो उन्होंने सम्यग्दर्शन तक ही सीमित रखा और अन्त में घोषणापूर्वक कहा कि देखो भाई ! यदि तुमने यह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया तो समझ लो कि - प्रथम नरक विन षट् भूज्योतिष वान भवन षंड नारी। थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी ।। तीनलोक तिहुँकाल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी । सकल धर्म को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ।। सम्यग्दृष्टि जीव पहले नरक को छोड़कर छह नरकों में नहीं जाता है। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी नहीं होता । नपुंसक व स्त्री पर्याय में नहीं जाता । स्थावर और विकलत्रय अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय नहीं होता और तिर्यंच गति में भी उत्पन्न नहीं होता। तीन लोक में और तीन कालों में सम्यग्दर्शन के समान सुखकारी अन्य कोई पदार्थ नहीं है। यह सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप आदि सभी धर्मों का मूल है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना ये धर्म हो (29)

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