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छहढाला का सार
तीसरा प्रवचन
ही कहना होगा। तात्पर्य यह है कि आत्मा को जानने के लिये अनात्मा को भी जानना होगा। विगत ढाल में कहा भी है कि -
आतम-अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।
जो व्यक्ति आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित हैं, वे धर्म के नाम पर जो कुछ भी क्रिया करते हैं, वह सब क्रिया तन को क्षीण करनेवाली है, शरीर को सुखानेवाली है। इससे अधिक कुछ नहीं।
आत्मा माने जीव और अनात्मा माने अजीव । इसप्रकार आत्मा और अनात्मा को जानना जीव-अजीव तत्त्व को जानना ही तो हुआ।
जिसे शुद्ध घी की दुकान करना है, उसे घी के साथ-साथ उन वस्तुओं का ज्ञान करना भी जरूरी है कि जिनको धोके से घी समझा जा सकता है; अन्यथा हम मिलावट से बच नहीं सकते।
उसीप्रकार हमें आत्मा का ध्यान करना है तो हमें आत्मा (जीव) के साथ-साथ अनात्मा (अजीव) को भी जानना होगा, अन्यथा हम मिलावट से बच नहीं सकते।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की शर्त पर से भिन्न आत्मा को जानने की है; अतः स्व और पर अर्थात् आत्मा-अनात्मा का ज्ञान जरूरी है। ___ हाँ, इतना अन्तर अवश्य है कि आत्मा (स्व) को पाने के लिए जानना है और अनात्मा (पर) को छोड़ने के लिए जानना है; उसमें से अपनापन तोड़ने के लिये जानना है।
दोनों के जानने में बहुत बड़ा अन्तर है। मान लीजिये हमें जयपुर जाना है और हम एक चौराहे पर खड़े हैं तो हमें जयपुर का रास्ता भी जानना और जो रास्ते जयपुर नहीं जाते, उन्हें भी जानना है; पर दोनों के जानने में अन्तर है।
जिस रास्ते पर जाना है; उसे तो पूरी तरह जानना है। यह भी ।
___४९ जानना है कि रास्ता ठीक तो है, रास्ते में डर तो नहीं है, रात को भी जा सकते हैं या नहीं, पेट्रोल पंप और चाय की दुकाने हैं या नहीं; पर जिन रास्तों पर जाना नहीं है; उन्हें मात्र इतना ही जानना है कि ये रास्ते जयपुर के नहीं हैं। उनके बारे में इससे अधिक कुछ जानने की जरूरत नहीं है; क्योंकि हमें उनपर जाना ही नहीं है। ___ इसीप्रकार आत्मा (जीव) को तो निजरूप जानना-मानना है; उसी में रम जाने के लिये जानना है; किन्तु अनात्मा अर्थात् परपदार्थों को 'ये पर हैं' - मात्र इतना ही जानना है, इससे अधिक कुछ नहीं। ___ जीव को ऐसा जानना है कि यह ज्ञानानन्द स्वभावी जीव मैं हूँ और अजीव को ऐसा जानना है कि ये शरीरादि अजीव पदार्थ मैं नहीं हूँ। इसका नाम जीव-अजीव तत्त्व का ज्ञान है।
यहाँ शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं और कितना खून होता है - यह जानना शरीर का जानना नहीं है; पर पुद्गलरचित हाड़-मांस का यह शरीर मैं नहीं हूँ - इतना जानना ही पर्याप्त है।
आत्मा तीन प्रकार के हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । देह (अजीव) और जीव को एक माननेवाले बहिरात्मा हैं और अन्तर आत्मा तीन प्रकार के हैं - उत्तम, मध्यम और जघन्य । __ दो प्रकार के परिग्रह से रहित, अपने आत्मा का ध्यान करनेवाले सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के शुद्धोपयोगी मुनि उत्तम अन्तरात्मा हैं, पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती गृहस्थ और छटवें गुणस्थान में रहनेवाले शुभोपयोगी मुनिराज मध्यम अन्तरात्मा हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक जघन्य अन्तरात्मा हैं। ये तीनों ही अन्तरात्मा मोक्षमार्गी हैं।
सकल और निकल के भेद से परमात्मा दो प्रकार के हैं। घातिया कर्मों को नष्ट करनेवाले और लोकालोक में देखने-जाननेवाले अरहंत