Book Title: Chahdhala Ka sara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 19
________________ छहढाला का सार हाथी शब्द से वाच्य कम्पनी में बहुमत किसका है ? जीव द्रव्य तो एक और अजीव अनन्त पुद्गल परमाणु । बोलो - इसमें बहुमत किसका है - अजीव का है या जीव का? हाथी का शरीर अजीव है और हाथी के अन्दर जो आत्मा है, वह जीव है। हाथी, घोड़ा, मनुष्य, मक्खी - इनमें ज्ञान-दर्शनस्वभावी, जानने देखनेवाला तत्त्व जीव है और रूप-रस-स्पर्श-गंध आदि रूप जो पुद्गल स्कन्ध है, वह अजीव है। प्रश्न : बात तो सही है क्योंकि हाथी का शरीर अजीव है और उसका आत्मा जीव है। लेकिन शास्त्र में तो हाथी को जीव लिखा है ? उत्तर : शास्त्र में तो इसलिए लिखा है कि तुम उनके साथ जीव जैसा व्यवहार करो। हाथी-घोड़े के साथ अजीव, पत्थर जैसा व्यवहार मत करो । दया पालन करने के लिए शास्त्र में उसे जीव कहा है। ___ वह भी भगवान आत्मा है - ऐसा हम बोलते हैं तो अष्टद्रव्य से पूजन करने के लिए नहीं बोलते कि तुम हे हाथीदेवा ! कहकर उसकी पूजा करने लगो। ध्यान रहे कि दया करने के लिए उसे जीव कहा है। आराधना करने के लिए उसे जीव नहीं कहा। क्यों भाई ! क्या उम्र होगी तुम्हारी ? २२ साल की। और वजन कितना है ? ७४ किलो - यह सब किसका है ? यह वजन तुम्हारा है ? क्या आत्मा में वजन होता है ? अभी-अभी अपन कह रहे थे आत्मा जुदा है और शरीर जुदा है। जानना-देखना स्वभाव आत्मा का है और यह वजन आदि पुद्गल का है। यह बात उस बेचारे ने तो कह दी है; पर हमारी-तुम्हारी - सबकी यही हालत है। मैं डॉक्टर के यहाँ जाऊँगा और डॉक्टर मुझसे पूछेगा - आपका वजन कितना है तो मैं भी ७४ किलो ही बताऊंगा। लेकिन मैं दूसरा प्रवचन ऐसा बताने से मिथ्यादृष्टि नहीं हो जाऊँगा। भाषा तो सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं की भी ऐसी ही होती है। जिस अपेक्षा से सामने से प्रश्न किया गया है; उसी अपेक्षा से उत्तर आता है, लेकिन उसी वक्त अन्दर ज्ञान में यह बना रहता है कि यह मैं नहीं हूँ। मैं तो इससे पृथक् चेतनतत्त्व हूँ। ___ मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूँ कि जो भाषा के स्तर पर तो बड़े अध्यात्मी बनते हैं; पर.....। एक बार हम एक ऐसे ही महापुरुष के पास उनकी तबियत पूंछने गये तो क्या देखते हैं कि जब हमने पूछा कि कैसी तबियत है आपकी ? तपाक से बोले - क्या हुआ मुझे, मैं तो एकदम ठीक हूँ; बुखार तो इस पड़ौसी देह को आया है। अरे भाई ! जब हम व्यवहारनय से पूछ रहे हैं तो तुम भी उसी व्यवहारनय से जवाब दो न ! हम तो देह की ही तबियत पूछने आये है? लेकिन उनका वह अध्यात्म सिर्फ एक मिनिट भी नहीं टिकता है, अगले ही क्षण से यह रामायण आरम्भ हो जाती है कि कमर में दर्द होता है, पैरों में दर्द होता है, डॉक्टर ने यह बताया है, इतनी गोलियाँ दी..... । उनके जेब की तलाशी लो तो जेब में दस-पाँच गोलियाँ मिल जायेगी। अरे भाई ! तुम्हें यदि कुछ नहीं हुआ है तो ये गोलियाँ किसलिए हैं ? ऐसे नकली अध्यात्मिक बनने की बात मैं आपसे नहीं कहता हूँ। अरे भाई ! बाहर में भाषा तो व्यवहार की ही बोली जायेगी, लेकिन अंदर में स्वीकृत होना चाहिये कि मैं पर का स्वामी नहीं हूँ, कर्ता-धर्ता नहीं हूँ, भोक्ता भी नहीं हूँ। इसीप्रकार पर भी मेरा स्वामी नहीं है, कर्ताधर्ता नहीं है और भोक्ता भी नहीं है। मुनीम कहता है - हम इस भाव में नहीं दे सकते । ऐसे तो हमारा दिवाला निकल जायेगा। यदि कल तक पैसे नहीं आये तो मेरे से बुरा (17)

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