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भी स्नात्र पढ़ानी हो, वहाँ पहले भूमि शुद्ध करके चन्टरवा और पूठीया वाँधकर तीन वाजोट (पाटे ) एक के ऊपर एक तिगडे के रूप मे रसकर ऊपर सिंहासन रखे। एक और बाजोट या बडा पाटा निगडे के सामने रसे, जिस पर पूजा आदि का सामान रसा जाय। फिर पूजक (नात्रिया) आठ पुड का मुसकोश बाँधकर प्रमुजन्माभिषेक का चिन्तन करता हुआ, बिगडे मे व सिंहासन पर साथिया करके ऊपर छत्र को बाँधकर श्री प्रभु को विराजमान करे। निगडे,मे अक्षत साथिया कर श्रीफल के मौली वाँधकर तीन नवकार गिनता हुआ चाँवल पुज ( साथिये ) पर श्रीफल स्थापन करे । रूपानागा (द्रव्य) भी वहाँ रसे। सामने वाले बाजोट पर पाँच साथिए चावलों के करे। धूप सेवे। पूजा की सव वस्तुएँ धूप से धूपित करे। रकेत्री मे थोडे अक्षतों के साथ केशर-फूल या लोग मिलाकर कुसुमाजलि तयार कर ले। बाट मे पुरुप जिन प्रतिमाजी के दाहिने हाथ की तरफ और स्त्री वायीं तरफ कुसुमाञ्जलि की रकेबी लेकर सड़ा होकर एक नवकार मन्त्र पढता हुआ स्नान-पूजा पढनी (गानी) या पढवानी (गवानी) आरम्भ करे ।।
कुछ आवश्यकीय ध्यान देने योग्य वाते -- . जैन शास्त्रों में पूजा की विधि बहुत ही विस्तार पूर्वक एव विधि-विधान सहित लिखी हुई है एव पूजा का फल भी बहुत कहा है। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भन नही है कि