Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ १२२ : भिक्षु विचार दर्शन साधु उसे रोके तो लेने वाले का अन्तराय होता है, इसलिए साधु वैसा नहीं कर सकता। साधु वर्तमान में असंयमी-दान की न तो प्रशंसा करे और न उसका. निषेध करे, किन्तु मौन रहे।-धर्म-चर्चा के प्रसंग में दान के यथार्थस्वरूप का विश्लेषण करे। इस पर भी कुछ लोगों ने कहा-दान को धर्म न मानने का अर्थ ही उसका निषेध है। आचार्य भिक्षु ने इसका समाधान किया कि दान देने वाले को कोई कहे कि तू मत दे, वह दान का निषेध करने वाला है। किन्तु दान जिस कोटि का हो उसी कोटि का बतलाया जाए, वह निषेध नहीं है, वह ज्ञान की निर्मलता है। भगवान् ने असंयमी को दान देने में धर्म नहीं कहा, इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान् ने दान का निषेध किया है। इसका अर्थ इतना ही है कि जिसका जो स्वरूप था, वही बतला दिया। किसी व्यक्ति ने साधु से कहा-तुम मेरे घर भिक्षा लेने मत आना। दूसरे व्यक्ति ने साधु को गालियां दीं। जिसने निषेध किया, उसके घर साधु भिक्षा लेने नहीं जाता है। जिसने गालियां दी उसके घर भिक्षा लेने जाता है : कारण यह है कि निषेध करना और कठोर वचन बोलना एक भाषा में नहीं समाते। इसी प्रकार दान देने का निषेध करना और दान को अधर्म १. भिक्खु दृष्टान्त, ३.१७-२१ : दाता र दान देवे तिण काले, लेवाल लेवे धर पीतो रे। जब साध कहे तूं मत दे इणने, नपेधणो नहीं इण रीतो. रे॥ जो दान देता ने साध नपेदे तो, लेवाल रे पडे अंतरायो रे। अंतराय दीयां फल कडवा लागे, तिणसूं नषेध न करे इण न्यायो रे।। अंतराय सूं डरतो साधु न बोले, और परमारथ मत जाणो रे। ते पिण मून छे वरतमान काले, बुधवंत कीजो पिछाणो रे॥ उपदेश देवे साध तिण काले, दूध पाणी ज्यूं करे जीवेरो रे। विनां बतायां च्यार तीरथ में, किण विध मिटे अंधेरो रे॥ टोनं भापा साधु नहीं बोले, पुन छे अथवा पुन नाहीं रे। ते धरज्यो वरतमानं काल आसरी, थे च देखो मन माहीं रे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218