Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 171
________________ १६२ : भिक्षु विचार दर्शन विवरण है कि आचार्य तुलसी को संघ ने वही सम्मान दिया, जो महान् यशस्वी पूर्ववर्ती आचार्य को देता था। छठे आचार्य माणकलालजी अपने उत्तराधिकारी का निर्वाचन नहीं कर सके। उनका अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। फिर साधु-संघ मिला। सब साधुओं ने मुनि कालूजी को भार सौंपा। उन्होंने मुनि डालचन्दजी के नाम की घोषणा की। सब साधु-साध्वियों ने उन्हें अपना आचार्य स्वीकार कर लिया। हमारा इतिहास यह है कि आचार्य-पद के लिए कभी कोई विवाद नहीं हुआ। व्यवस्था आखिर व्यवस्था होती है। वह प्राणवान् साधना से बनती है। हमारा आचार्य और साधु जब तक साधना को महत्त्व देंगे, तब तक आचार्य-पद का प्रश्न जटिल नहीं बनेगा। साधना के गौण होने पर जो होता है सो होता ही है। ___ आचार्य-पद के निर्वाचन का प्रश्न जटिल न बने-इसका सम्बन्ध औरों की अपेक्षा आचार्य से अधिक है। आचार्य-पद व्यक्तिवाद से जितना अस्पृष्ट रह पाए उतना ही वह विवादास्पद बनने से बचता रहेगा। साधु साध्वियों से भी इसका सम्बन्ध न हो, ऐसा नहीं है। उनका दृष्टिकोण संघ की अपेक्षा अपना महत्त्व साधने में लग जाए तो आचार्य-पद की समस्या जटिल बने बिना नहीं रह पाती। स्वार्थ की दृष्टि खुलते ही सामुदायिकता का रूप धुंधला दीखने लगता है। १२. गण और गणी आचार्य भिक्षु की व्यवस्था में गणी की अपेक्षा गण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। गणी गण में से ही आते हैं। गण स्थायी है, गणी बदलते रहते हैं। वे गण के प्रति उत्तरदायी होते हैं। गण के प्रति जैसी निष्ठा एक साधु की होती है, वैसी ही गणी की होती है। वे गण की सुव्यवस्था के लिए होते हैं। गण न हो तो गणी का अर्थ ही क्या? गण अवयवी है। गणी और साधु उसके अवयव हैं। गणी की तुलना पेट से की जाती है और साधु-साध्वियों की शेष अवयवों से। पेट से समूचे शरीर को पोष मिलता है; सभी अवयव उससे रस लेते हैं। सभी बीमारियां भी पेट से होती हैं। आचार्य की स्वस्थता सबसे अधिक अपेक्षित हैं। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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