Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
१६० : भिक्षु विचार दर्शन
यह जीव सब जीवों का गुरु बन चुका है, यह जीव सब जीवों का शिष्य बन चुका है, पर सम्यक्-श्रद्धा के बिना भ्रांति नहीं मिटी। बीज के बिना हल चलता है, पर खेत खाली रह जाता है। वैसे ही शून्य चित्त से पढ़ने वाला परमार्थ को नहीं पाता।'
जो परमार्थ को नहीं पाता वह प्रतिबिम्ब को पकड़ बैठ जाता है। उसे मूल नहीं मिलता
लाखों कुंड जल से भरे हैं, उनमें चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब है, मूर्ख सोचता है चन्द्रमा को पकड़ लूं, परन्तु चन्द्रमा आकाश में रहता है। प्रतिबिम्ब को चन्द्रमा मानता है, वह बुद्धि से विकल है। वैसे ही बाह्याचार को जो मूल मानता है.
वह अज्ञान-तिमर में डूबा हुआ है। ६. जैन-धर्म की वर्तमान दशा का चित्र
आचार्य भिक्षु ने जैन-धर्म की वर्तमान अवस्था का सजीव चित्रण किया है
भगवान् महावीर के निर्वाण होने पर घोर अन्धकार छा गया है, जिन-धर्म आज भी अस्तित्व में है,
१. निन्हव रो चौपाई, ४.१३
कोई भणे भणावे करवा नाम रे, केइ प्रसंसा मान बडाइ हेत रे।
सूने चित परमार्थ पायो नहीं रे, ए बीज विण रहि गयो खाली खेत रे॥ २. वही, ४.२३-२४
कुंडा भरीया जल सूं लाखां गमे रे, चन्द्रमा रो सगले छे प्रतिबिंब रे। मूर्ख जाणे गिरलूं चन्द्रमा रे, पिण ते तो आकासे अंतर लम्ब रे॥ प्रतिबिंब ने जे कोइ माने चन्द्रमा रे, ते तो कहिजे विकल समान रे। ज्यूं गुण विण सरधे साधु भेष ने र, ते खूता मिथ्याती पूर अग्यान रे॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218