Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 210
________________ अनुभूतियों के सूर्योदय होते-होते खोटे रुपये के दर्शन हुए हैं। ग्राहक बोला - सेठजी ! नाराज क्यों होते हैं? परसों मैं तांबे का पैसा लाया था, तब आप बहुत प्रसन्न हुए और उसकी वंदना की। कल मैं चांदी का रुपया लाया था तब भी आप प्रसन्न हुए और उसकी वंदना की। आज मैं जो रुपया लाया हूं उसमें तांबा और चांदी दोनों हैं । आज तो आपको अधिक प्रसन्न होना चाहिए, इसको दो बार वंदना करनी चाहिए । महान् स्रोत : २०१ साहूकार ने झल्लाते हुए कहा - मूर्ख ! परसों तू पैसा लाया, वह कोरे तांबे का था, इसलिए खुश था। कल रुपया लाया, वह कोरी चांदी का था, इसलिए वह भी खरा था। आज तू जो लाया है, वह न कोरा तांबा है और न कोरी चांदी । यह तो धोखा है। नीचे तांबा है और ऊपर चांदी का पानी चढ़ाया हुआ है, इसलिए यह खोटा है। गृहस्थ पैसे के समान है । साधु रुपये के समान है । साधु का धारण करने वाला उस खोटे रुपये के समान है, जो न कोरा तांबा है और न कोरी चांदी है। गृहस्थ मोक्ष की आराधना कर सकता है, साधु मोक्ष की आराधना करता है, पर केवल वेशधारी मोक्ष की आराधना नहीं कर सकता ।' Jain Education International अपने रूप में सब वस्तुएं शुद्ध होती हैं । अशुद्ध वह होती है, जिसका अपना रूप कुछ दूसरा हो और वह दीखे दूसरे रूप में । यह अन्दर और बाहर का भेद जनता को भुलावे में डालता है । इसीलिए मनुष्य को पारखी बनने की आवश्यकता हुई । परीक्षा के लिए शरीर - बल अपेक्षित नहीं है । वह बुद्धि-बल से होती है । शरीर - बल जहां काम नहीं देता, वहां बुद्धि-बल सफल हो जाता है । १५. बुद्धि का बल एक जाट ने ज्वार की खेती की। फसल पक गई थी। एक रात को चार चोर खेत में घुसे । ज्वार के भुट्टों को तोड़ चार गट्ठर बांध लिए । इतने में जाट आ गया और उसने सारा करतब देख लिया । वह उनके पास आया और हंसते हुए पूछा- भाई साहब! आप किस जाति के होते हैं? उनमें से एक ने कहा- मैं राजपूत हूं। दूसरा -- मैं साहूकार हूं, तीसरा- मैं १. भिक्खु दृष्टान्तः २६५, पृ. ११६-१७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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