Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 213
________________ २०४ : भिक्षु विचार दर्शन है तब सन्देह होता है। उसके समाधान के लिए यह पर्याप्त है कि विश्व की व्यवस्था में विवेक है। उक्त संवाद में इसी ध्रुव-सत्य की व्याख्या है। १८. राग-द्वेष ध्रुव-सत्य को पकड़ने में सबसे बड़ी बाधा है राग-द्वेषपूर्ण मनः स्थिति। आचार्य भिक्षु के अनुसार द्वेष की अपेक्षा राग अधिक बाधक है। किसी आदमी ने बच्चे के मुंह पर एक चपत लगाया। लोगों ने उसे उलाहना दिया। किसी आदमी ने बच्चे को लड्डू दिया। लोगों ने उसे सराहा। द्वेष पर दृष्टि सीधी जाती है, पर राग पर नहीं जाती। द्वेष की अपेक्षा राग को छोड़ना कठिन है। द्वेष मिटाने पर भी राग रह जाता है। इसीलिए वीतराग कहा जाता है, वीतद्वेष नहीं।' _राग वस्तुओं का ही नहीं होता, विचारों का भी होता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार-काम-राग, स्नेह-राग को थोड़े प्रयत्न से मिटाया जा सकता है, पर दृष्टि-राग-विचारों के राग का उच्छेद करना बड़े-बड़े पुरुषों के लिए भी कठिन है। आचार्य भिक्षु को एक ऐसे ही रागी को कहना पड़ा-चर्चा चोर की भांति मत करो। एक आदमी चर्चा करने आया। एक प्रश्न पूछा। वह पूरा हुआ ही नहीं कि दूसरा प्रश्न छेड़ दिया। दूसरे को छोड़ तीसरे में हाथ डाला। तब आचार्य भिक्षु ने कहा-चोर की भांति चर्चा मत करो। खेत का स्वामी भुट्टों को श्रेणीबद्ध काटता है और चोर आ घुसे तो वे एक कहीं से काटते हैं और दूसरा कहीं से । तुम खेत के स्वामी की तरह क्रमशः चलते चलो। एक-एक प्रश्न को पूरा करते जाओ। चोर की भांति चर्चा मत करो। १६. विराम प्रारम्भ और विराम प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं। मनुष्य की कोई कृति अनादि-अनन्त नहीं होती। विश्व अनादि-अनन्त है। जिसका आदि न हो और अन्त भी न हो, १. भिक्खु दृष्टान्त, ६ पृ. ५ २. वही, १३२, पृ. ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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