Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 204
________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६५ पूजा करना नहीं जानता, वह बहुत पढ़कर भी शायद कुछ भी नहीं जानता इसलिए उसे अविनीत ही नहीं, अज्ञानी भी कहा जा सकता है। जो बड़ों का सम्मान नहीं करता और दूसरों को उभारकर विद्रोहपूर्ण भावना फैलाने में ही रस लेता है, उसे क्या पता कि साधना में क्या रस होता है? वह अविनीत ही नहीं, नीरस भी है। उसने साधना का स्वाद चखा ही नहीं । जो मुख के सामने कुछ कहता है, तथा पीठ पीछे कुछ और। वह विष का घड़ा है, ढक्कन अमृत का लगा हुआ है। वह अविनीत ही क्या है, जीता-जागता विश्वासघात है । अविनीत को अविनीत का संयोग मिलता है । तब यह वैसे ही अप्रसन्न होता है । जैसे डायन जरख को पाकर प्रसन्न होती है । ' अविनीत अपने सम्पर्क से विनीत को भी अविनीत बना देता है जैसे एक व्यक्ति ने अपने बेटे का विवाह किया। दहेज में सुसरालवालों ने कई गधे दिए। उनमें एक गधा अविनीत था । वह जल पात्र को गिरा फोड़ देता । उसने हैरान होकर उसे छोड़ दिया । वह जंगल में स्वतंत्र रहने लगा । एक दिन वहां एक गाड़ीवान आया । वृक्ष की छांह में विश्राम के लिए उतरा। बैलों को एक पेड़ से बांध दिया और स्वयं रसोई पकाने लगा । गधा घूमता फिरता उन बैलों के पास जा पहुंचा । वह बोला - देखो ! मेरी बात मानो तो तुम इस भार ढोने के कष्ट से मुक्त हो सकते हो । दो बैलों में एक मामा था और दूसरा भानजा । मामा - बैल को उसकी बात रुचि । किन्तु भानजे ने फटकार बताते हुए कहा- हम भार ढोते हैं वह तुम देखते हो, हमारा स्वामी हमारी कितनी सेवा करता है, वह नहीं देखते । गधा बोला- आखिर हो तो परतन्त्र ही न ! भानजे ने कहा- हम स्वतन्त्र होकर कर ही क्या सकते हैं? भानजे के समझाने के बाद भी मामा गधे के १. विनीत - अविनीत, ५.२८ अविनीत ने अविनीत श्रावक मिले ए, ते पामें घणो मन हरख । ज्यू डाकण राजी हुवे ए, चढवा ने मिलिया जरख ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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