Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 178
________________ संघ व्यवस्था : १६६ 1 कर लें | आचार्य भिक्षु ने इस विषय की, अपने अनेक मर्यादा-पत्रों में चर्चा की है । उसका उद्देश्य विचार - स्वातन्त्र्य का लोप करना नहीं है। उसका उद्देश्य है, विचारों के संघर्ष को उपशान्त किये रखना । वैचारिक पराधीनता जैसे अच्छी बात नहीं है, वैसे ही वैचारिक संघर्ष भी अच्छा नहीं है। अच्छी बात है मन की शांति और शांति में से ही अच्छे विचार निकलते हैं । 1 जिसका मन दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने गुट में लेने का होता है, जो गण में भेद डाल अपना नया गण खड़ा करना चाहता है, यह सब अशान्त मन की प्रतिक्रिया है । आचार्य भिक्षु इसको रोकना चाहते थे इसलिए उन्होंने पुनरुक्ति का विचार किए बिना बार-बार इसे दोहराया - "कोई श्रद्धा या आचार का नया विषय निकल जाए तो उसकी चर्चा बड़ों से की जाए, पर औरों से न की जाए। औरों से उसकी चर्चा कर उनको संदिग्ध न बनाया जाए। बड़े जो उत्तर दें वह अपने हृदय में बैठे तो उसे मान लिया जाये और न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दिया जाए। पर उस विवादास्पद विषय को लेकर गण में भेद न डाला जाए ।"" I समूचे का सारांश इतना है - " अपने विचारों का एकान्तिक आग्रह सामान्य साधु भी न करे, बहुश्रुत साधु भी न करे और आचार्य भी न करे तर्क की पूंछ को बहुत लम्बी न बनाए। सामान्य साधु बहुश्रुत और आचार्य पर विश्वास करे और आचार्य बहुश्रुतों की बात पर समुचित ध्यान दे।" इस प्रकार यह एक ऐसी शृंखला गूंथी है, जिसमें न कोई पूरा स्वतंत्र है और न कोई पूरा परतंत्र । स्वतंत्रता उतनी ही है कि जिससे साधना का मार्ग अवरुद्ध न हो और परतन्त्रता उतनी ही है कि जिससे साथ में रहने में बाधा उत्पन्न न हो । गण की शक्ति, सौहार्द और विकास का पथ अवरुद्ध न हो । १३. निर्णायकता के केन्द्र शास्त्रों में 'आचार्य' शब्द के अनेक निरुक्त और परिभाषाएं हैं। उनके पीछे अनेक अभिप्राय और अनेक कल्पनाएं हैं । कुछ वर्ष पहले मर्यादा - महोत्सव के अवसर पर मैंने एक कविता लिखी । उसमें आचार्य की परिभाषा इन शब्दों में है : १. लिखित, १८५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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