Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 190
________________ संघ-व्यवस्था : १८१ को अपमानित करने का दृष्टिकोण है। दूसरों को अपमानित कर स्वयं आगे आने की जो भावना है, वह दोष-पूर्ण पद्धति है। इसमें एक दूसरे को दोषी ठहराकर गिराने की परिपाटी हो जाती है। जिस संस्था या सभा के सदस्यों में एक-दूसरे को ओछा दिखाने की भावना या प्रवृत्ति नहीं होती, केवल एक-दूसरे को शुद्ध रखने के लिए ही दोषी को उसके दोष की ओर ध्यान दिलाने की कर्त्तव्य-भावना होती है, उस संस्था या समाज के चरित्र, प्रेम और संगठन दृढ़तम होते हैं। दोष थोपना भी पाप है, उसका प्रचार करना भी पाप है और उसकी उपेक्षा करना भी पाप है। सत्पुरुष का कर्तव्य यह है कि वह कोरी सन्देह-भावना से किसी को दोषी न ठहराए। दोष देखे तो उसे या गुरु को जताए, और कहीं उसका प्रचार न करे। . इस विषय में दो महत्त्वपूर्ण बातें ये हैं-१. दोष देखे तो तत्काल कह दे। तत्काल का अर्थ उसी समय नहीं है किन्तु लम्बे समय तक दोष को छिपाए न रखे। २. दोषों को इकट्ठा न करे। ___आचार्य भिक्षु ने कहा-“बहुत दिनों के बाद कोई किसी में दोष बताए तो प्रायश्चित्त का भागी वही है, जो दोष बताता है। जिसने दोष किया हो, उसे याद हो तो, उसे प्रायश्चित्त करना ही चाहिए।" बहुत दिनों के बाद जो दोष बताए उसकी बात कैसे मानी जाए? उसकी बात में सचाई हो तो ज्ञानी जाने, परन्तु व्यवहार में उसका विश्वास नहीं होता। जो दोषों को इकट्ठा करता है, वह अन्यायवादी है। जब आपस में प्रेम होता है तब तो उसके दोषों को छिपाता है और प्रेम टूटने पर दोषों की गठरी खोल फेंकता है, उस व्यक्ति का विश्वास कैसे हो? यह विपरीत १. लिखित १८५० २. (क) आचार री चौपाई, १५.८ : घणा दिना रा दोष बतावे, ते तो मानवा में किम आवे। साच झूठ तो केवली जाणे, छदमस्थ प्रतीत न आणे।। (ख) लिखित, १८५० ३. लिखित, १८५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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