Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 193
________________ १८४ : भिक्षु विचार दर्शन शेष सब शिष्य । आचार्य संयम से अनुशासित होते हैं और शिष्य-वर्ग संयम और आचार्य के अनुशासन से अनुशासित होता है। अनुशासन की पृष्ठभूमि में सत्ता का बल नहीं है, किन्तु प्रेम और वात्सल्य है। शिष्यों का विनय और आचार्य का वात्सल्य-दोनों मिलकर अनुशासन को संचालित करते हैं। कुछ आधुनिक सुधारक हमारी प्रणाली को सामन्तशाही प्रणाली कहने. में गर्व अनुभव करते हैं, इसमें उनका दोष भी नहीं है। श्रद्धा का स्पर्श भी जो न कर सकें, उनके लिए सब जगह सामन्तशाही है। तर्क सदा संग्रह की परिक्रमा करता है। श्रद्धा में समर्पण होता है। श्रद्धालु के लिए श्रद्धा सुधा होती है और श्रद्धेय के लिए विष। श्रद्धेय वही होता है जो उस विष को पचा सके। श्रद्धालु श्रद्धा करना जानता है पर कैसे टिके, यह नहीं जानता। यह श्रद्धेय को जानना होता है कि वह कैसे टिके? यह श्रद्धा का ही चमत्कार है कि आचार्य आदेश देते जाते हैं और साधु-साध्वियां खड़े होकर उसे स्वीकार करते जाते हैं। माघ शुक्ला सप्तमी का दिन, जो मर्यादा-महोत्सव का दिन है, बड़ा कुतूहल का दिन होता है। उस दिन साधु-साध्वियों के विहार-क्षेत्र का निर्णय होता है। किस साधु-साध्वी को आगामी वर्ष कहां जाना है, कहां रहना है, कहां चतुर्मास बिताना है, यह प्रश्न तब तक उसके लिए भी प्रश्न होता है, जब तक आचार्य उसके विहार-क्षेत्र की घोषणा नहीं करते हैं। तब दर्शक आनन्द-विभोर हो जाते हैं, जब आचार्य साधु-साध्वियों को विहार का आदेश देते हैं और वे सम्मान के साथ उसे स्वीकार करते हैं। आचार्य भिक्षु ने अनुभव किया कि छोटे-छोटे गांव खाली हैं और बड़े-बड़े गांव साधुओं से भरे हैं। साधुओं की दृष्टि उपकार से हटकर सुविधा पर टिक रही है। उन्होंने व्यवस्था की-"सब साधु-साध्वियां विहार, शेषकाल या चतुर्मास भारमलजी (वर्तमान आचाय) की आज्ञा से करें, आज्ञा के बिना कहीं न रहे।"१ उन्होंने बताया-"सुख-सुविधा वाले क्षेत्रों की ममता कर बहुत जीव चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। इसलिए “सरस आहार मिले वहां भी आज्ञा - १. लिखित : १८५६ २. वही : १८५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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