Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 191
________________ १८२ : भिक्षु विचार दर्शन बुद्धि है। दोष बताने वाला ही दोषी नहीं है, उसे सुनने वाला भी दोषी है। सुनने वालों का कर्तव्य क्या होना चाहिए? इसे भी आचार्य भिक्षु ने स्पष्ट किया है- “कोई गृहस्थ साधु-साध्वियों के स्वभाव या दोष के सम्बन्ध में कुछ बताए तो श्रोता उसे यह कहे कि मुझे क्यों कहते हो या तो उसी को कहो या गुरु को कहो, जिससे प्रायश्चित्त देकर उसे शुद्ध करें। गुरु को नहीं कहोगे तो तुम भी दोष के भागी हो, तुममें भी वक्रता है। मुझे कहने का अर्थ क्या होगा? यह कहकर उस झमेले से अलग हो जाए, उस पंचायत में न फंसे। दोष के प्रकरण को लेकर आचार्य भिक्षु ने एक पूरा ‘लिखित' लिखा। उसका सारांश इस प्रकार है १. साधु परस्पर साथ में रहे, उस स्थिति में किसी से कोई दोष हुआ हो तो उसे अवसर देखकर शीघ्र ही जता दे, पर दोषों का संग्रह न करे। २. जिसने दोष किया हो वह प्रायश्चित्त करे तो भी गुरु को जता दे। ३. वह प्रायश्चित्त न करे तो दोष को पन्ने पर लिख उससे स्वीकृत करा, उसे सौंप दे और कह दे कि इसका प्रायश्चित्त कर लेना। इसका प्रायश्चित्त न आए तो भी गुरु को कह देना। इसे टालना मत। जो तुमने नहीं कहा तो मुझे कहना होगा। मैं दोषों को दबाकर नहीं रखूगा। जिस दोष के बारे में मुझे संदेह है, उसे मैं सन्देह की भाषा में कहूंगा और जिसे निःसन्देह जानता हूं, उसे असंदिग्ध रूप से कहूंगा। अब भी तुम संभलकर चलो। ४. आवश्यकता हो तो उसी के सामने गृहस्थ को जताए। ५. शेष-काल हो तो गृहस्थ को न कहे। जहां आचार्य हों, वहां आ जाए। ६. गुरु के समीप आकर अडंगा खड़ा न करे। ७. गुरु किसे सच्चा ठहराए और किसे झूठा ठहराए ? लक्षणों से किसी को सच्चा जाने और किसी को झूठा, परन्तु निश्चय कैसे हो सकता है? १. आचार री चौपाई, १५.६ : हेत मांहि तो दोषण ढांके, हेत टूटां कहतो नहिं सांके। तिणरी किम आवे परतीत, उणमें जाण लेणो विपरीत॥ २. लिखित, १८५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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