Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 180
________________ संघ - व्यवस्था : १७१ ४६ की। सर्वसम्मति निर्णय की स्थिति श्रद्धा ही है । विचार, तर्क या बुद्धि के प्रवाह से वह स्थिति नहीं बनती । श्रद्धा का अर्थ है - आग्रहहीनता, नम्रता और सत्य- शोध की सतत साधना । सत्य का शोधक कभी भी आग्रही नहीं होता । वह अपने विश्वास को दृढ़ता के साथ निभाता है, फिर भी नम्रता को नहीं छोड़ता । व्यक्ति-व्यक्ति की रुचि विचित्र होती है । संस्कार भी निराले होते हैं । अधिकांश व्यक्ति अपनी रुचि और संस्कारों को जितना महत्त्व देते हैं, उतना वस्तुस्थिति को नहीं देते । परन्तु साधना का मार्ग संस्कारों से ऊपर उठकर चलने का है। श्रद्धा की यही विशेषता है कि उसमें सारी शंकाएं लीन हो जाती हैं। नदियां कहीं सीधी चलती हैं और कहीं टेढ़ी । आखिर वे समुद्र के गर्भ में लीन हो जाती हैं। विचारों के प्रवाह कहीं ऋजु होते हैं और कहीं वक्र । आखिर वे आचार्य के निर्णय में लीन हो जाते हैं । यही है आचार्य भिक्षु की मर्यादा का माहात्म्य । रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिल नाना पथजुषां । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ दार्शनिक - कवि की वाणी में अद्वैत का जो काल्पनिक चित्र है उसे आचार्य भिक्षु ने साकार बना दिया । उसकी 'मर्यादावली' के 'अनुसार आचार्य सबके गम्य बन गए । १४. गण में कौन रहे? सम-विचार, आचार और निरूपणा के प्रकार में जिन्हें विश्वास होता है वे गण के सदस्य होते हैं । गण किसी एक-दो से नहीं बनता । वह अनेकों की सम - जीवन - परिपाटी से बनता है । गण तब बनता है जब एक-दूसरे में विश्वास हो । गण तब बनता है जब एक-दूसरे में आत्मीयता हो गण तब बनता है, जब सब में ध्येय की निष्ठा हो । आचार्य भिक्षु ने लिखा- "सब साधु शुद्ध आचार का पालन करें और परस्पर में प्रगाढ़ प्रेम रखें।" प्रेम परस्पर में रखना चाहिए - यह इष्ट बात है । इसका उपदेश देना भी इष्ट है । पर इष्ट की उपलब्धि कैसे हो? आचार्य भिक्षु ने उसके कई मार्ग सुझाएं हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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