Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ संघ-व्यवस्था : १७५ ३. क्रोधी या ढीठ जानकर कोई भी अपने पास न रखे। ४. विहार करने के लिए सुविधाजनक गांव में न भेजा जाए। ५. कपड़ा मनचाहा न दिया जाए। ६. अयोग्य जानकर दूसरे साधु मुझे गण से पृथक् करने वाले हैं-ऐसा मालूम हो जाए। ये तथा ऐसे और भी अनेक कारण हैं, जिनसे प्रभावित हो कर कोई साधु गण से पृथक् हो जाता है। १६. पृथक् होते समय साधु-जीवन साधना का जीवन है। उसमें बल से कुछ भी नहीं होता। साधना हृदय की पूर्ण स्वतन्त्रता से ही हो सकती है। आचार्य साधुओं पर अनुशासन करते हैं पर तभी, जबकि साधु ऐसा चाहें। मार्गदर्शन या शिक्षा प्रार्थी को दी जाती है। कोई प्रार्थी ही न हो तो उसे कौन क्या मार्ग दिखाए और कौन क्या सीख दे? शिष्य आचार्य के अनुशासन का प्रार्थी होता है। इसलिए आचार्य उसे अनुशासन देते हैं। जब वह प्रार्थी न रहे तव आचार्य भी अपना हाथ खींच लेते हैं। फिर वह स्वतन्त्र है, जहां चाहे वहां रहे और जो चाहे सो करे। गण से पृथक् होने का यही अर्थ है। __ आचार्य भिक्षु ने इसके लिए कुछ निर्देश दिए हैं। उनके अभिमत में गण से पृथक् होते समय और होने के पश्चात् भी कुछ शिप्टंताओं का पालन करना चाहिए १. किसी का मन गण से उचट जाए अथवा किसी से साधु-जीवन न निभे, उस सयम वह गण से पृथक् हो तो किसी दूसरे साधु को साथ न ले जाए। २. किसी को शिष्य बनाने के लिए गण से पृथक् हो तो शिष्य बनाकर नया मार्ग या नया सम्प्रदाय न चलाए। __ ३. गण से पृथक् होने का मन हो जाने पर गृहस्थों के सामने दूसरे साधुओं की निंदा न करे। ४. गण में रहकर ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करे या कराए अथवा किसी के पास से ले, वे तब तक ही उसकी हैं जब तक गण में रहे। गण से १. लिखित : १८५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218