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प्रस्तावना
१. ऐतिहासिक स्थान
जैन समाज के इतिहास में सामान्य तौर पर तीन कालखण्ड दृष्टिगोचर होते हैं । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद करीब ६०० वर्ष तक जैन समाज विकासशील था । अपने मौलिक सिद्धान्तों का विकास और प्रसार करनेके लिए उस समय जैन साधु अपना पूरा समय व्यतीत करते थे । जनसाधारण से सम्पर्क कायम रहे इस उद्देश से वे परित्रज्या - निरन्तर भ्रमण का अवलम्ब करते थे । मठ, मन्दिर या वाहन, आसनों की उन्हें आवश्यकता नहीं थी । तपश्चर्या के उनके नियम भी भगवान् महावीर के आदर्श से बहुत कुछ मिलते जुलते थे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में साधुओं में वस्त्रधारण की प्रथा यद्यपि उस समय भी थी तथापि भगवान के आदर्श जीवन को वे भूल नहीं सके थे ।
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ईस्वी सन की दूसरी शताब्दी से जैन समाज व्यवस्थाप्रिय होने लगी । व्यवस्थापन का यह युग भी करीब ६०० वर्ष चलता रहा । इस युग के आरम्भ मैं कुन्दकुन्द और धरसेन आचार्य ने विशाल जैन शास्त्रों को सूत्रबद्ध करने का आरम्भ किया। पांचवी सदी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने भी अपने आगम शास्त्रबद्ध किये । अनुश्रुति से चली आई पुराण कथाएं इसी समय विमलसूरि, संघदास, कविपरमेश्वर आदि के द्वारा ग्रन्थबद्ध हुई । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में भी समन्तभद्र और सिद्धसेन के मौलिक विवेचन को अकलङ्क और हरिभद्र द्वारा इसी युग में सुव्यवस्थित सम्प्रदाय का रूप प्राप्त हुआ । पल्लव, कदम्ब, गंग और राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय से इसी युग में मठ और मन्दिरों का निर्माण वेग से हुआ तथा आचार्य परंपराएं सार्वदेशीय रूप छोड कर स्थानिक रूप ग्रहण करने लगीं ।
नौवीं शताब्दी से जैन समाज का जनसाधारण से सम्पर्क बहुत कम होता गया । भारतके कई प्रदेशों में अब यह सिर्फ वैश्य समाज के एक भाग के रूप में परिणत होने लगी । राजकीय दृष्टि से भी मुस्लिम शासकों का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ने लगा । इन परिस्थितियों में स्वभावत: विकास और व्यवस्था की प्रवृत्तियां पीछे रह गई और आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति को ही प्राधान्य मिलने लगा । किसी युगप्रवर्तक नेता के अभाव से यह संरक्षणात्मक प्रवृत्ति धीरे धीरे व्यापक होती गई और अन्त में उस ने विकासशीलता को समाप्त कर दिया। इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप साधुसंघ में भद्दारकसम्प्रदाय उत्पन्न हुए और बढे । भट्टारकों के
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