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सुपार्श्वनाथ स्तवनम् .
नदी यमुनाके तीर ए-रागः सुपार्थ प्रभु जिनराज केपाल तारशी, वीनतडी मुज प्रेम धरीने स्वीकारशो; राग द्वेष अन्याय नृपति जीर टाळशी, शुद्धरमणता सन्मुख दृष्टि पाळशो. विषय वासना पासथी प्रभुजी छोडावजी, परम दयालु देव दया दील हावी; अनुभव अन्तरदृष्टिनी सृष्टि जगावजी, परमानन्दतुं पात्र चतन मुज थावजो. केवलज्ञाननी ज्योतिमी ज्ञेय अभिन्न छ, परद्रव्यादिक ज्ञेय थकी पळी भिन्न छ ज्ञेयाकारे ज्ञान परिणमे जाणजो, भिन्नाभिन्न स्वरूप अनेकांत आणजो. ज्ञेयापेक्षे ज्ञान अनन्तुं जिन कहे, ज्ञेयनी पास ज्ञान गया वण सहु लहे; दर्पण फ्याइ न जाय दर्पणमा समाय छे, ज्ञेयाकारीभावो ए दृष्टांत न्याय छे. दूरवर्ती जे ज्ञेय ज्ञानमांहि भासतो, ज्ञान अचिन्त्यस्वभाव हृदयमा आवतो;
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