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२७० शत्रु मित्र सम गणता गुरु गुणवान् जो; षद् आवश्यक नित्य करे लही अर्थने, क्रिया न करता फोनोग्राफ समान जो. नमन० ११ पर परिणतिने त्यागे शुद्धातम थकी, आठ मदोने त्यागे दुःख देनार जो; छत्रीश गुण धारक म्हारा श्री सद्गुरु, सरळ अने मृदुभाव हृदय धरनार जो. नमन १२ अडदश सहस शिलांग रथे विराजता, नवविध पाळी ब्रह्मचर्य मतिमान जो दशविध यतिना धर्मे जे छे उजळा, अनुभव रसना रसीया प्रभु गुणखाण जो. नमन. १३ योगाष्टक साधे जे प्रेम थकी सदा, आत्मज्ञाननी अलख खुमारी मस्त जो; दुनियांने दिवानी गणता सद्गुरु, ज्ञानामृत पीतां ने पाता तृप्त जो.. नमन० १४ समुद्र ज्ञान विशाळ हमेशां डोलता. दीन रजनी पण ज्ञान ज्ञान ने ज्ञान जो ज्ञान गोष्ठी वीण ग तु जरा न जेहने, ज्ञानोदधि रस पीवा लाग्युं तान जो. नमन०१५ सार साधु गुण धरे धरावे शिष्यने, मिथ्या जोरे कुगुरुमां न फसाय जो; तप जप क्रिया करतां भव बंधा मटे, सिद्धि समकित विना न कदीये पमाय जो. नमन० १६ अंतर्मुहुर्त समकित जो पामे भवि,
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