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कोई बात नहीं, अगर कोई अशुभ कार्य के लिए जाते समय भी मंगल पाठ श्रवण करना चाहे तो उसे भी साधु यह पाठ सुनाने से इंकार नहीं करेंगे। मंगल-पाठ एक ऐसी लोकोत्तर भाव - औषध है जो निरोग को भी लाभ पहुंचाती है और रोगी को भी विशेष लाभ पहुंचाती है । अतएव प्रत्येक पुरुष उसका पात्र है, बल्कि रोगी और अधिक उपयुक्त पात्र है। भला, देव, गुरु और धर्म का स्मरण करना अनुचित कैसे कहा जा सकता है ?
जिसका जो अधिकार है वह उतना ही कर सकता है। साधुगण द्रव्य से उन्मुक्त हो चुके हैं। वे भाव के आराधक हैं । इस दशा में वे भाव मंगल ही कर सकते हैं। अतएव व्यापार के निमित्त जाने वाले को मांगलिक वे सुनाकर कहते हैं कि द्रव्य मंगल के सामने भाव मंगल को मत विसर जाना इसी प्रकार संग्राम में जूझने के लिए जाने वाले को सावधान करते हैं कि देखना, संग्राम में भी धर्म को मत भूलना ।
यह भाव मंगल नौका के समान है। जिसकी इच्छा हो, नौका पर आरूढ़ हो, जो आरूढ़ होगा उसे वह पार लगा देगी। भाव मंगल के विधान में भी यह बात है। इसे सुनकर न्यायोचित व्यापार करने वाला अपने धर्म पर स्थिर रहेगा और अन्याय करेगा तो अधर्म की सरिता में डूबेगा ।
साधु विवाह के अवसर पर भी मांगलिक सुनाते हैं । वह इसलिए कि सुनने वालों को यह ज्ञान हो जाये कि विवाह बंधन के लिए नहीं है । विवाह गृहस्थी में रहने वालों को पारस्परिक धर्म-संबंधी सहायता आदान-प्रदान करने के लिए होता है, धर्म का ध्वंस करने के लिए नहीं, बंधनों की परम्परा बढ़ाने के लिए भी नहीं । इस प्रकार साधु भाव मंगल सुनाते हैं जो सब के लिए, सदा काल, सब प्रकार से सम्पूर्ण कल्याण का कारण है, जिसमें अकल्याण का कण मात्र भी नहीं होता ।
विवाह के पश्चात् स्त्री और पुरुष के मिल कर चार पैर और चार हाथ हो जाते हैं। चार पैर वाला चौपाया होता है और चार हाथ वाला देवता होता है । साधु विवाह के अवसर पर मांगलिक सुना कर यह शिक्षा देता है कि विवाह करके चौपाया पशु मत बनना, मगर चतुर्भुज देवता बनना ।
सारांश यह है कि साधु भाव मंगल सुनाते हैं, द्रव्य मंगल नहीं। जिस मंगल से एक को लाभ या सुख हो और दूसरे को हानि या दुःख हो, वह द्रव्य मंगल है। द्रव्य मंगल के द्वारा होने वाला एक का लाभ या सुख भी निखालिस नहीं होता। उसमें हानि एवं दुःख का सम्मिश्रण होता है। इसके अतिरिक्त द्रव्यमंगल अल्पकालीन होता है और उसकी मांगलिकता की मात्रा भी अधिक श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १७