Book Title: Ashtsahastri Part 2 Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh SansthanPage 15
________________ तत्त्वोपप्लववादी-सभी प्रमाण प्रमेय उपप्लुत ही हैं अर्थात् अभावरूप ही हैं । इसलिये सर्वज्ञ कोई है ही नहीं। जैनाचार्य-आप सभी प्रमाण-ज्ञान, प्रमेय-जीवादि वस्तुओं का अभाव मानते हैं तब आप अपना और अपनी मान्यता-शून्यवाद का अस्तित्व स्वीकार करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तब तो सर्वथा शून्यवाद नहीं रहा । यदि अपना तथा अपनी मान्यता का भी अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं तब तो आपका कथन भी अस्तित्व रहित होने से कैसे माना जायेगा ? जैसे कि आकाश का कमल नहीं माना जा सकता है। ___ बात यह है-मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादी ये तीनों सर्वज्ञ को मानते ही नहीं हैं । बौद्ध, सांख्य. वैशेषिक और ब्रह्मवादी ये लोग सर्वज्ञ को तो मानते हैं किन्तु उनकी मान्यतायें गलत हैं इस बात का स्पष्टीकरण आगे समयानुसार होगा। हे भगवन् ! जो आत्मा कर्ममल रहित निर्दोष और सर्वज्ञ है वह आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। वह आपका अविरोध इष्ट-शासन, प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है। अर्थात् घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ये तीन गुण आप अहंत में ही घटित होते हैं अन्यत्र किसी में घटित नहीं होते हैं, इसलिये आप अर्हत ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं क्योंकि आपके वचनों में किसी प्रकार का विरोध न होने से आपका मत बाधा रहित सर्व प्राणी को हितकर है । और आपके शासन में संसार और मोक्ष तथा संसार के कारण और मोक्ष के कारण ये चार तत्त्व बाधा रहित हैं। ये चारों बाधा रहित कैसे हैं ? मोक्ष की समीक्षा सांख्य-प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान हो जाने पर चैतन्यमात्र स्वरूप में आत्मा का अवस्थान हो जाना मोक्ष है। सर्वज्ञता प्रधानजड़ का स्वरूप है आत्मा का नहीं, क्योंकि ज्ञानादि अचेतम हैं। वे प्रकृति के ही स्वरूप हैं। जैनाचार्य--यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है, क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं-जैसे चैतन्य । वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख दुःख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। वैशेषिक–बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों का नाश हो जाना ही मोक्ष है क्योंकि बुद्धि आदि आत्मा के स्वभाव नहीं हैं आत्मा से भिन्न हैं। जैनाचार्य-यदि मुक्ति में बुद्धि-ज्ञान और सुख का ही विनाश माना जायेगा तब मुक्ति के लिये भला कौन बुद्धिमान प्रयत्न करेगा? ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं हैं कर्ता और करण की अपेक्षा से कथंचित ही भिन्न है। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि क्षायोपशमिक ज्ञान और साता बेदनीयजन्य सुख का तो हम लोग भी मुक्ति में विनाश मान लेते हैं किन्तु क्षायिक पूर्णज्ञान और अतींद्रिय अव्याबाध सुख का तो मोक्ष में अभाव नहीं है प्रत्युत ज्ञान और सुख की पूर्णता के लिये ही मोक्ष के लिये प्रयत्न किया जाता है। वेदांतवादी-मुक्त जीव के अनन्त सूख संवेदनरूप ज्ञान तो है किन्तु उन्हें बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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