Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth प्रयाग के उद्यान में एक वटवृक्ष के नीचे वे ध्यानस्थ हो गए। तब उन्हें फागुन सुदी एकादशी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वहाँ पर आकर कुबेर ने समवसरण की रचना की। देवों की प्रार्थना पर भगवान् ऋषभदेव ने दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देकर धर्मचक्र-प्रर्वतन किया, जिससे सभी प्राणी लाभान्वित हुए। परम्परा से ज्ञात होता है कि भगवान् ऋषभदेव के संघ में मुनियों की संख्या चौरासी हजार थी और साढ़े तीन लाख आर्यिकाएँ थीं। श्रावक-श्राविकाओं की संख्या आठ लाख थी। इससे ज्ञात होता है कि ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित तत्कालीन जैन धर्म लोकधर्म था। * कैलाश पर्वत से निर्वाण : भगवान् ऋषभदेव सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सम्पूर्ण देश में बिहार करते हुए जनमानस को धर्म स्वरूप समझाते रहे। यह वही आत्मधर्म था जो आगे चलकर श्रमण परम्परा और जैन धर्म के नाम से विख्यात हुआ। ऋषभदेव ने पहले गृहस्थ जीवन में प्रजा के भौतिक जीवन और आहार-विहार को बदला तथा आत्मदर्शी और केवलज्ञानी बनकर जनमानस के आचार-विचार को बदल दिया। इस प्रकार ऋषभदेव लोगों के लिए महादेव के रूप में स्थापित हो गए। अन्त में उन्होंने कैलाशपर्वत पर जाकर ध्यान लगाया और उन्हें माघ कृष्णा चर्तुदशी को निर्वाण की प्राप्ति हो गई। यही तिथि शिवजी के लिंग-उदय की मानी जाती है, जिसके स्मरण में शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। कैलाश पर्वत प्राचीन भारतीय संस्कृति के आदिदेव ऋषभ का मोक्ष-प्राप्ति-स्थल होने से तीर्थ बन गया। और ऋषभदेव समग्र भारतवासियों के आदिदेव बन गए। जैन सम्पद्राय के जिस प्रकार वे प्रथम तीर्थंकर हैं उसी प्रकार वैदिक परम्परा के लोगों के लिए वे राम और कृष्ण से भी प्राचीन कल्याणकारी देवता हैं, जिन्हें विष्णु भगवान् का अवतार माना जाता है। इसीलिए अथर्ववेद (१९.४२.४) में कहा गया है कि- सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक वृत्तियों के प्रथम राजा, आदित्य स्वरूप श्री ऋषभदेव का मैं आवाहन करता हूँ। वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें अहो मुंचं वृषभ याज्ञिमानां विराजन्तं प्रथमध्वराणाम् । अपां न पानमश्विना हवे धिय इन्द्रियेण इन्द्रियंदत्तभोगः।। * पुरातत्व और समन्वय के आधार : भारत की प्राचीन परम्पराओं और साहित्य में योगी ऋषभदेव आत्मधर्म के आदि महापुरुष सिद्ध होते हैं। पुरातत्वविद् रायबहादुर चन्दा का कथन है कि सिन्धुघाटी की मोहरों में एक मूर्ति में मथुरा से प्राप्त ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी भी मानते हैं कि मोहनजोदड़ो के कायोत्सर्ग देवताओं का साम्य ऋषभदेव के योगीरूप से है। अतः शैवधर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है। डॉ. एन.एन वसु का मत है कि लेखनकला और ब्रह्मविद्या का आविष्कार ऋषभदेव ने किया था। अनेक पुरातत्वविदों ने निष्कर्ष दिया कि ऋषभादि २४ तीर्थङ्करों की मान्यता सुदूर प्राचीनकाल में प्रचलित थी। ऋषभदेव की इसी प्राचीनता के कारण ऋषभदेव और शिव के स्वरूप एवं व्यक्तित्व में कई समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। शिवपुराणों में तो स्पष्ट कहा गया है कि आदिदेव शिवलिंग के रूप में प्रकट हुआ है और शंकर का ऋषभ अवतार होगा। शिवजी का दिगम्बरत्व रूप, जटाधारी, तपस्वी, अपरिग्रही, नान्दीवाहन, Bhagwan Rushabhdev -35 218

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87