Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 48
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. पूजा के रूप में भगवान् ऋषभदेव की ही पूजा सिद्ध होती है। यथा-'ॐ-पञ्च परमेष्ठी; भू:-सर्वश्रेष्ठ, भुवःजन्म-जरा-मरण आदि दुःखों के मुक्त होने के लिए रत्नत्रय मार्ग के उपदेष्टा; स्वः-शुद्धोपयोग में स्थित; तत्-उस ॐ वाचक परमेष्ठी को; जो सवितुः -हिताहित का मार्ग बतलाने के कारण त्रिलोक के लिये सुखदायक है; वह वरेण्यम् - उपासना के योग्य है। भर्गोः -रागादि दोष से दूषित हम लोगों के लिए प्रतिपादित कल्याण-मार्ग को; देवस्य -तीर्थङ्कर देव को, धीमहि -धारण करते हैं; उन तीर्थङ्कर ऋषभदेव के उपदेश से; नः -हमारी, धियः-बुद्धि प्रचोदयात् -सत्कार्यों में प्रवृत्त हो। अर्थात् पञ्चपरमेष्ठी स्वरूप आदि ब्रह्म श्री ऋषभदेव के प्रसाद से हमारी बुद्धि राग-द्वेष से रहित होकर शुद्धोपयोग में लगे। इस प्रकार सूर्यदेव के रूप में भगवान् ऋषभदेव की ही स्तुति की गई है। अग्नि (ब्रह्मा) के पर्यायवाची नामों में सूर्य को भी अग्नि कहा है, जो स्पष्टतया ऋषभदेव की ओर संकेतित किया गया है। इस प्रकार अग्निदेव, विष्णुदेव, सूर्यदेव और ऋषभदेव सभी एकार्थक हैं। १०. ऋषभदेव और ऋषि पंचमी भाद्रपद शुक्ला पंचमी जैनेतर वर्ग में 'ऋषि पञ्चमी' के नाम से सर्वत्र मनाई जाती है। यही पञ्चमी जैन परम्परा में 'संवत्सरी' के नाम से विश्रुत है। जैन परम्परा में इस पर्व को सब पर्यों का राजा कहा गया है। जैनों का आध्यात्मिक पर्व होने से यह ‘पर्वाधिराज' है। इस दिन सर्वोतम आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए प्रत्येक जैन यत्नशील रहता है, त्याग-तपस्या, क्षमा, निष्परिग्रहता आदि आत्मिक गुणों को विकसाने वाला, स्नेह और प्रेम की गंगा बहानेवाला यह सर्वोत्कृष्ट पर्व है। वैदिक और ब्राह्मण परम्परा ने भी इस दिवस को सर्वोच्च प्रधानता दी है। एक ही दिन भिन्न-भिन्न नामों से प्रसिद्ध ये दोनों पर्व किसी समान तत्त्व को लेकर हैं, और वह तत्त्व ऋषभदेव का स्मरण ही हो सकता है। आर्यजाति आरम्भ से ही ऋषभदेव की भक्ति में ओत-प्रोत होकर उनका स्मरण करती थी, और इस निमित्त से भाद्रपद शुक्ला पञ्चमी पर्व के रूप में मनाई जाती थी। आगे चलकर जैन परम्परा निवृत्ति मार्ग की ओर मुड़ी, तब उसने इस पञ्चमी को आत्मिक शुद्धि का रूप देने के लिए 'संवत्सरी' पर्व के रूप में मनाना शुरू कर दिया; जबकि वैदिक परम्परा के अनुयायियों ने अपनी पूर्व परम्परा को ही चालू रखा। वस्ततुः 'ऋषि पञ्चमी' और 'ऋषभ' इस नाम में एक ही ध्वनि समाई हुई है। ऋषि पञ्चमी के स्थान पर 'ऋषभ पञ्चमी' शुद्ध नाम होना चाहिये और उसी का अपभ्रंश होकर कालान्तर में यह पर्व 'ऋषभ पञ्चमी' के स्थान पर 'ऋषि पञ्चमी' के रूप में बोला जाने लगा होगा। यदि यह कल्पना ठीक है, तो जैन और जैनेतर दोनों परम्पराओं में ऋषभदेव की समान मान्यता की पुष्टि होती है।३४ ११. वातरशना श्रमण जैनधर्म भारत का बहुत ही प्राचीन धर्म है। यह धर्म श्रमण परम्परा का प्राचीनतम रूप है। हजारों वर्षों के अतीत में वह विभिन्न नामों द्वारा अभिहित होता रहा है। वैदिककाल में वह 'वातरशना मुनि' के नाम से विश्रुत रहा है। 'ऋग्वेद' में न केवल इन मुनियों का नाम आया है, अपितु उनको या उनकी एक विशेष शाखा को 'वातरशना मुनि' कहा गया है। 'अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशन मुनि मल धारण करते हैं, जिससे पिंगलवर्ण वाले दिखायी देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक देते हैं तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं "मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थित हो गये है। मर्यो ! तुम हमारा शरीर मात्र ३४ चार तीर्थङ्कर -पं. सुखलालजी संघवी, पृ.५। Rushabhdev : Ek Parishilan -62562

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