Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY
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Shri Ashtapad Maha Tirth
इक्ष्वाकुभूमि, हस्तिनापुर आदि बस्ती का समय ई. पू. अठारह सौ वर्ष मानते हैं। यह जो मन्तव्य है वह ऐतिहाजिसक विद्वानों का है।
ऋषभदेव और परवर्ती तीर्थङ्करों के वंश, जन्मस्थली, वर्ण, नाम एवं शासन क्षेत्र से उन्हें आर्यरक्त मानने की परम्परा उचित है। यद्यपि पुरातत्ववेत्ता गंगा घाटी की चित्रित सिलेटी पात्र संस्कृति को ही आर्यों से सम्बन्धित करते हैं, क्योंकि इसके पूर्व की आर्यों की भूमि के रूप में सप्तसिंधु प्रदेश और ब्रह्मवर्त प्रदेश की प्रतिष्ठा वैदिक साहित्य में प्रगट होती है।
सिन्धु घाटी की आर्येत्तर सभ्यता के प्राप्त ध्वंसाशेष और उत्खननों से भी यही प्रतीत होता है, कि जैनधर्म के आदि संस्थापक ऋषभदेव थे। यदि हम जैनेतर साहित्यिक प्रमाणों का विवेचन करें, तो उनका चरित्र पौराणिक मनु से मिलता है।
ऋग्वेद में वर्णित वातरशना मुनि व ऋषभदेव श्रमण संस्कुति से सम्बन्धित हैं।
ऋग्वेद हम्मुराबी (ई. पू. २१२३-२०१८) के अभिलेखों, सिन्धु सभ्यता, सुमेरू सभ्यता एवं ईरान में वृषभ को देव रूप माना गया था। सम्भवतः कृषि कर्म की महत्ता के कारण वृषभ को यह विशिष्ट गौरव प्रदान किया गया होगा। भारत की आर्येतर सिन्धु सभ्यता में बैल की मृण्मय मूर्तियाँ एवं मुद्रांकित श्रेष्ठ आकृतियों से ऋषभदेव की महत्ता स्पष्ट होती है। * पाश्चात्य विद्वानों की खोज :
जैन धर्म भारत के ही विविध अंचलों में नहीं अपितु वह एक दिन विदेशों में भी फैला हुआ था। हमारे प्रस्तुत कथन की पुष्टि महान् विचारक पादरी रेवरेण्ड एब्बे जे. ए. डुबाई ने अपनी फ्रान्सीसी भाषा की पुस्तक में एक जगह की है। वे लिखते हैं- “एक युग में जैन धर्म सम्पूर्ण एशिया में साइबेरिया से राजकुमारी तक और केस्पीयन झील से लेकर केम्स चटका खाड़ी तक फैला हुआ था।" रेवरेण्ड डुबाई के प्रस्तुत अभिमत की पुष्टि में भी अनेक प्रमाण हैं। विदेशों में अनेक स्थलों पर खुदाई करने पर तीर्थङ्करों की विभिन्न मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जो वहाँ की अनुभूतियों में भी विभिन्न घटनाओं एवं तथ्यों को उजागर करती
भगवान ऋषभदेव विदेशों में भी परमाराध्य रहे हैं। वहाँ पर वे कृषि के देवता, वर्षा के देवता और सूर्य देव के रूप में उपास्य रहे हैं।
डॉ. कामताप्रसाद जैन ने सभी मान्यताओं और गवेषणाओं का वर्गीकरण करते हुए लिखा है“पूर्व में चीन और जापान भी उनके नाम और काम से परिचित हैं। बौद्ध-चीनी त्रिपिटक में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। जापानियों ने (Rok' shab) कहकर आह्वान किया है। मध्य एशिया, मिश्र और युनान में वे सूर्यदेव ज्ञान की दृष्टि से आराध्य रहे हैं, और फोनेशिया में रेशेफ नाम से बैल के चिह्न में उदृङ्कित किये गये हैं। मध्य एशिया में ऋषभदेव (Bull God) अर्थात् 'बाड आल' नाम से अभिहित किये गये हैं। फणिक लोगों की भाषा में रेशेफ शब्द का अर्थ 'सींगों वाला देवता' है, जो ऋषभ के बैल के चिह्न का द्योतक है। साथ ही 'रेशेफ' शब्द का साम्य भी 'ऋषभ' शब्द से है।"
प्रोफेसर आर. जी. हर्ष ने अपने अन्वेषणात्मक लेख२४ में लिखा है- 'आलसिफ (साइप्रस) से प्राप्त अपोलो (सूर्य) की ई. पूर्व बारहवीं शती की प्रतिकृति का द्वितीय नाम 'रेशेफ' (Reshf) है। प्रस्तुत रेशेफ 'ऋषभ' का ही अपभ्रंश रूप हो सकता है और सम्भव है, कि यह ऋषभ ही ऋषभदेव होने चाहिये।
२४ बुलेटिन आफ दी डेक्कन कॉलेज रिसर्च इन्स्टीटयूट, भाग १४, खण्ड ३, पृ. २२६- २३६।।
Rushabhdev : Ek Parishilan
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