Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 67
________________ भगवान् की पीयूषवर्षिणी वाणी से निकले हुए इन विराग पूर्ण उद्गारों को सुन कर सम्राट् भरत के ऋषभसेन आदि पाँच सौ पुत्रों एवं सात सौ पौत्रों ने साधु-संघ में और ब्राह्मी आदि पाँच सौ सन्नारियों ने साध्वी संघ में दीक्षा ग्रहण की । महाराज भरत सम्यग्दर्शी श्रावक हुए। इसी प्रकार श्रेयांशकुमार आदि सहस्रों नरपुंगवों और सुभद्रा आदि सन्नारियों ने सम्यग्दर्शन और श्रावक व्रत ग्रहण किया। इस प्रकार साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका रूप यह चार प्रकार का संघ स्थापित हुआ। धर्मतीर्थ की स्थापना करने से भगवान् सर्वप्रथम तीर्थंकर कहलाये । ऋषभसेन ने भगवान् की वाणी सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और तीन पृच्छाओं से उन्होंने चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया । भगवान् के चौरासी गणधरों में प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए। कहीं-कहीं पुडरीक नाम का भी उल्लेख मिलता है परन्तु समवायांग सूत्र आदि के आधार से पुंडरीक नहीं, ऋषभसेन नाम ही संगत प्रतीत होता है। ऋषभदेव के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जिन चार हजार व्यक्तियों के लिये पहले क्षुधा, पिपासादि कष्टों से घबरा कर तापस होने की बात कही गई थी, उन लोगों ने भी जब भगवान् की केवल - ज्ञानोत्पत्ति और तीर्थ - प्रवर्तन की बात सुनी तो, कच्छ महाकच्छ को छोड़कर शेष सभी भगवान् की सेवा मे आये और आर्हती प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु संघ में सम्मिलित हो गये। " आचार्य जिनसेन के मतानुसार ऋषभदेव के ८४ गणधरों के नाम इस प्रकार हैं : १. वृषभसेन २. कुम्भ ३. दृढरथ ४. शत्रुदमन ५. देवशर्मा ६. धनदेव ७. नन्दन ८. सोमदत्त ९. सुरदत्त १०. वायशर्मा ४. ५. ६. ११. सुबाहु १२. देवाग्नि १३. अग्निदेव १४. अग्निभूति १५. तेजस्वी १६. अग्निमित्र १७. हलधर १८. महीधर १९. माहेन्द्र २०. वसुदेव २१. वसुन्धर Shri Ashtapad Maha Tirth २२. अचल २३. मेरु २४. भूति २५. सर्वसह २६. यज्ञ २७. सर्वगुप्त २८. सर्वप्रिय २९. सर्वदेव ३०. विजय ३१. विजयगुप्त ३२. विजयमित्र ३३. विजयश्री ३४. पराख्य ३५. अपराजित ३६. वसुमित्र 275 “भगवओ सगासे पव्वता ।" - आ. नि. म. पृ. २३० (ब) त्रि. १/३/६५४ हरिवंश पुराण, सर्ग १२, श्लोक ५४-७० ३७. वसुसेन ३८. साधुसेन ३९. सत्यदेव ४०. सत्यवेद ४१. सर्वगुप्त ४२. मित्र ४३. सत्यवान् ४४. विनीत ४५. संवर तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुतो सो धम्म सोऊण पव्वइतो तेण तिहिं पुच्छाहिं चोहसपुव्वाई गहिताई उप्पन्ने विगते घुते, तत्थ बम्भीवि पव्वइया । - आ. चूर्णि पृ १८२ ४६. ऋषिगुप्त ४७. ऋषिदत्त ४८. यज्ञदेव Jain Dharma ka Maulik Itihas

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