Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 28
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth इसमें आचार्य ने सर्वप्रथम मंगलाचरण कर लोक-अलोक व काल का वर्णन किया है। इसके पश्चात् सप्त कुलकर, 'ह' कारादि नीतियाँ, अल्पानुभाव वाले कल्पवृक्षों का वर्णन कर श्री ऋषभदेव के दस पूर्वभवों का वर्णन किया है। ऋषभदेव के चतुर्थ भव में महाबल को प्रतिबोधित करने के लिये आचार्य ने मंत्री द्वारा 'विबुधानंद नाटक' की रचना करवाकर अवान्तर कथा को भी सम्मिलित किया है। भगवान् ऋषभदेव के जन्म के पश्चात् आचार्य ने भगवान् से सम्बन्धित निम्न बातों का अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है (१) इक्ष्वाकु वंश की स्थापना। (२) ऋषभस्वामी का विवाह और राज्याभिषेक। (३) विनीता नगरी की स्थापना। (४) भरत-बाहुबली आदि पुत्र व ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याद्वय का जन्म। (५) लिपि-कला-लक्षण शास्त्रादि का प्रादुर्भाव । (६) वर्ण व्यवस्था। ऋषभदेव की दीक्षा, पञ्चमुष्टि लोच। (८) एक संवत्सर के पश्चात् भगवान् का पारणा। (९) बाहुबली कृत धर्मचक्र। (१०) केवलज्ञान की उत्पत्ति । (११) मरुदेवी माता को केवलज्ञान और निर्वाण । (१२) गणधर स्थापना और ब्राह्मी प्रव्रज्या। (१३) भरत की विजय-यात्रा, नव निधियाँ । (१४) भरत-बाहुबली युद्ध । (१५) उत्तम, मध्यम और जघन्य-युद्ध के तीन रूप। (१६) पराजित भरत द्वारा चक्ररत्न फैंकना। (१७) बाहुबली की दीक्षा और केवलज्ञान। (१८) मरीचि का स्वमति अनुसार लिंग स्थापन । (१९) ऋषभदेव का निर्वाण । (२०) भरत का केवलज्ञान और निर्वाण । इस ग्रन्थ में प्रमुख ध्यान देने की बात है -भगवान् का पञ्चमुष्टि केशलुंचन; जबकि अन्य ग्रन्थों में चतुर्मुष्टि केशलुंचन का उल्लेख है। और दूसरा 'विबुधानन्द नाटक' की रचना। अन्य श्वेताम्बर-ग्रन्थों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है। युद्ध का वर्णन करते हुए तीन तरह के युद्ध प्रतिपादित किये हैं -दो प्रतिस्पर्धी राजा सैन्य का संहार रोकने के लिये परस्पर दृष्टियुद्ध अथवा मल्लयुद्ध करते थे। इन दो प्रकारों में से प्रथम उत्तम और द्वितीय मध्यम युद्ध कहलाता है। रणभूमि में दो प्रतिस्पर्धी राजाओं के सैन्य विविध आयुधों से जो युद्ध करते हैं वह अधम-कोटी का है। ५. आदिनाहचरियं प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानाचार्य हैं। इस रचना पर 'चउप्पन्नमहापुरिसचरियं' का प्रभाव है । उक्त ग्रन्थ की एक गाथा संख्या ४५ के रूप में इसमें ज्यों की ४७ कयवज्जसणिहाण पंचमुट्ठिलोओ ......पृ. ४० Rushabhdev : Ek Parishilan -362362

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