Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ और अन्त में नीलाञ्जना का नृत्यकाल में अचानक विलीन हो जाना ऋषभदेव की वैराग्य-साधना का आधार बन गया। तत्पश्चात् उन्होंने चार हजार राजाओं के साथ संयम ग्रहण किया, ऋषभदेव ने तो छह माह का अनशन तप स्वीकार कर लिया, परन्तु अन्य सहदीक्षित राजा लोग क्षुधा तृषा आदि की बाधा सहन न कर सकने के कारण पथभ्रष्ट हो गये। छह माह की समाप्ति पर भगवान् का भिक्षा के लिये घूमना, पर आहार - विधि का ज्ञान न होने से भगवान् का छह माह तक निराहार रहना हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के लघुभ्राता श्रेयांस का इक्षुरस दान तथा अन्त में एकान्त आत्म-साधना व घोर तपश्चर्या से एक हजार वर्ष पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति का वर्णन जिस रीति से आचार्य ने प्रस्तुत किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते हृदय मयूर सहसा नाच उठता है। Shri Ashtapad Maha Tirth इसके बाद आचार्य ने भरत की विविजय का मानो आखों देखा वर्णन किया है। भरतक्षेत्र को अपने अधीन कर सम्राट भरत ने राजनीति का विस्तार किया, स्वाश्रित सम्राटों की शासन पद्धति की शिक्षा दी, व्रती के रूप में ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की, वे षट्खण्ड के अधिपति होते हुए भी उसमें आसक्त नहीं थे। भगवान् ऋषभदेव ने केवलज्ञान के पश्चात दिव्यध्वनि द्वारा समस्त आर्यावर्त की जनता को हितोपदेश दिया। आयु के अन्त में कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया । भरत चक्रवर्ती भी गृहवास से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करते हैं तथा अन्तर्मुहूर्त में हीं केवलज्ञान की ज्योति को उद्धृत करते हैं केवलज्ञानी भरत भी आर्य देशों में विचरण कर, समस्त जीवों को हितोपदेश देकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । प्रस्तुत महापुराण दिगम्बर परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा के जितने भी अन्य ग्रन्थ हैं उन सभी के कथा का मूलस्त्रोत यही ग्रन्थ है । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में जो कथानक में अन्तर है वह इनमें सहज रूप से देखा जा सकता है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में ओज, माधुर्य प्रसाद, रस, अलंकार आदि काव्य गुणों से युक्त भगवान् ऋषभदेव का सम्पूर्ण जीवन काव्यमयी शैली से चित्रित किया है, जो यथार्थता की परिधि को न लांघता हुआ भी हृदयग्राही है। २. हरिवंशपुराण हरिवंश पुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघ के थे, ये महापुराण के कर्त्ता जिनसेन से भिन्न हैं। यह पुराण भी दिगम्बर सम्प्रदाय के कथा साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता है। प्रस्तुत पुराण में मुख्यतः त्रेसठ शलाका महापुरुष चरित्र में से दो शलाकापुरुषों का चरित्र वर्णित हुआ है। एक बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ जिनके कारण इसका दूसरा नाम 'अरिष्टनेमिपुराण संग्रह भी है और दूसरा नवें बासुदेव श्रीकृष्ण प्रसंगोपात्त सप्तम सर्ग से प्रयोदश सर्ग पर्यन्त प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव और प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत का चरित्र चित्रण भी इसमें विस्तृत रूप से प्रतिपादित किया गया है। १ कालद्रव्य का निरूपण करते हुए उन्होंने काल को उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के रूप में दो भागों में विभक्त किया है। वर्तमान अवसर्पिणी काल के भोगभूमि आरों का वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति, उनके कार्य, दण्ड-व्यवस्था आदि का वर्णन किया गया है। नाभि कुलकर के यहां ऋषभ का जन्म, कर्मभूमि की रचना, कलाओं शिक्षा, नीलाञ्जना नर्तकी को देख भगवान् का वैराग्य, संयम-साधना, नमि - विनमि को धरणेन्द्र द्वारा राज्य प्राप्ति, श्रेयांस द्वारा इक्षुरस का दान, शकटास्य वन में केवलज्ञानोपत्ति, भगवान् का सदुपदेश आदि का वर्णन विस्तृत व सुन्दर शैली में प्रस्तुत किया है। ५१ पुन्नाट संघीय आचार्य जिनसेन विरचित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६२ । 239 Rushabhdev Ek Parishilan

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87