Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 44
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth कहा गया है।२४ श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र को 'ईश, महेश्वर, शिव और ईशान' कहा गया है। मैत्रायणी उपनिषद् में इन्हें 'शम्भु' कहा गया है। इसके अतिरिक्त पुराणों में वर्णीत 'माहेश्वर, त्र्यंबक, हर, वृषभध्वज, भव, परमेश्वर, त्रिनेत्र, वृषांक, नटराज, जटी, कपर्दी, दिग्वस्त्र, यती, आत्मसंयमी, ब्रह्मचारी, ऊध्वरता आदि विशेषण पूर्णरूपेण ऋषभदेव तीर्थङ्कर के ऊपर भी लागू होते हैं। शिवपुराण में शिव का आदि तीर्थंकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है।२५ प्रभास पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है।२६ ५. ऋषभदेव और शिव शिव और ऋषभ की एकता को सिद्ध करने वाले कुछ अन्य लोकमान्य साक्ष्य भी हैं वैदिक मान्यता में शिव की जन्म तिथि शिवरात्रि के रूप में प्रतिवर्ष माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन व्रत रखकर मनायी जाती है। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभदेव के शिवगति गमन की तिथि भी माघ कृष्णा चतुर्दशी ही है, जिस दिन ऋषभदेव को शिवत्व उत्पन्न हुआ था। उस दिन समस्त साधुसंघ ने दिन को उपवास रखा तथा रात्रि में जागरण करके शिवगति प्राप्त ऋषभदेव आराधना की, इस रूप में यह तिथि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध हुई। वैदिक परम्परा में शिव को कैलाशवासी कहा गया है। जैन परम्परा में भी भगवान् ऋषभ की शिवसाधना रूप तप और निर्वाण का क्षेत्र कैलाश पर्वत है। शिव के जीवन का एक प्रसंग है, कि उन्होंने तप में विघ्न उपस्थित करने वाले कामदेव को नष्ट कर शिवा से विवाह किया। शिव का यह प्रसंग भगवान् ऋषभ से पूर्णतः मेल खाता है, कि उन्होंने मोह को नष्ट कर शिवा देवी के रूप में 'शिव' सुन्दरी मुक्ति से विवाह किया। उत्तरवैदिक मान्यता के अनुसार जब गंगा आकाश से अवतीर्ण हुई, तो चिरकालपर्यन्त वह शंकर की जटा में ही भ्रमण करती रही, पश्चात् वह भूतल पर आई। यह एक काल्पनिक तथ्य है, जिसका वास्तविक अभिप्राय यही है कि शिव अर्थात् भगवान् ऋषभदेव की स्वसंवित्ति रूपी ज्ञानगंगा असर्वज्ञ दशा तक उनके मस्तिष्क में ही प्रवाहित रही, तत्पश्चात् सर्वज्ञ होने के बाद वही धारा संसार का उद्धार करने के लिए वाणी द्वारा प्रवाहित हुई। दिगम्बर जैन पुराणों में जैसे ऋषभदेव के वैराग्य का कारण नीलांजना नाम की अप्सरा थी उसी प्रकार वैदिक परम्परा में नारद मुनि के द्वारा शंकर-पार्वती के सम्मुख 'धुत-प्रपञ्च' का वर्णन है और उससे प्रेरित होकर शिव की संसार से विरक्ति, परिग्रह-त्याग तथा आत्म-ध्यान में तल्लीनता का सविस्तृत उल्लेख किया है। शिव के अनुयायी गण कहलाते हैं और उनके प्रमुख नायक शिव के पुत्र गणेश थे इसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव के तीर्थ में भी उनके अनुयायी मुनि गण कहलाते थे और जो गण के अधिनायक होते थे वे गणाधिप, गणेश या गणधर कहलाते थे। भगवान् ऋषभदेव के प्रमुख गणधर भरतपुत्र वृषभसेन थे। शिव को जैसे डमरु और नटराज की मुद्रा से गीत, वाद्य आदि कलाओं का प्रवर्तक माना जाता २४ यजुर्वेद (तैत्तिरियां संहित) १८६; वाजसनेयी ३५७।६३ २५ इत्थं प्रभाव ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे। सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितवस्तव ।। ऋषभस्य चरित्रं हि परमं पावनं महत् । स्वय॑शस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः।। -शिवपुराण ४१४७-४८ २६ कैलाशे विमल रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः। चकार स्वावतारः च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।। -प्रभास पुराण ४९ ___ -शतपथ ब्राह्मण ६।११३१८ Rushabhdev : Ek Parishilan - -6252

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