Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth इस ग्रन्थ में ‘जीवानन्द वैद्य' के स्थान पर 'केशव' का उल्लेख हुआ है । ऋषभदेव पूर्वभव में 'केशव' नामक वैद्य पुत्र थे एवं श्रेयांस का जीव पूर्वभव में श्रेष्ठिपुत्र 'अभयघोष' था । ४० (१४) अनार्यवेद की उत्पत्ति। (१५) बाहुबली एवं भरत का युद्ध (१६) बहुबली की दीक्षा एवं केवलज्ञान । ऋषभदेव के निर्वाण के प्रसंग में कहा है कि भगवान् दस हजार साधुओं, निन्यानवें पुत्रों और आठ पौत्रों के साथ एक ही समय में सिद्ध-बुद्ध हुए थे । ४१ जबकि कल्पसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति आदि ग्रन्थों में दस हजार साधुओं का ही उल्लेख है । भरत बाहुबली के युद्ध वर्णन में आचार्य ने उत्तमयुद्ध और मध्यमयुद्ध इन दो युद्धों का वर्णन किया है। उसमें दृष्टियुद्ध को उत्तमयुद्ध कहा है और मुष्टियुद्ध को मध्यमयुद्ध बताया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में गंधांग, मायांग, रुक्खमूलिया और कालकेसा आदि विद्याओं का वर्णन है। विषयभोगों को दुःखदायी प्रतिपादन करते हुए कौवे और गीदड़ आदि की लौकिक कथाएँ भी दी हैं। २. पउमचरियं ४२ - संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि रामायण का है, वही स्थान प्राकृत में प्रस्तुत चरित-काव्य का है। इसके रचयिता विमलसूरि हैं ये आचार्य राहु के प्रशिष्य, विजय के शिष्य और नाइल - कुल के वंशज थे । यद्यपि सूरिजी ने स्वयं इसे पुराण कहा है, फिर भी आधुनिक विद्वान् इसे महाकाव्य मानते हैं। पउपचरियं में जैन - रामायण है । वाल्मीकि रामायण की तरह इसमें अनवरुद्ध कथा प्रवाह है। इसकी शैली उदात्त है। ४० ४१ 'पउमचरिय' में राम की कथा इन्द्रभूति और श्रेणिक के संवाद के रूप में कही गई है। कथा के प्रारम्भ में आचार्य ने लोक का वर्णन, उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल का निरूपण करते हुए तृतीय आरे के अन्त में कुलकर वंश की उत्पति का संक्षिप्त वर्णन किया है। प्रतिश्रुति कुलकर से लेकर चौदहवें कुलकर नाभि तक के युगानुरूप प्रसिद्ध कार्यों का विवरण भी प्रस्तुत किया है । तदनन्तर तीर्थङ्कर जन्म के सूचक मरुदेवी के चौदह स्वप्न, गर्भ में आने के छह माह पूर्व कुबेर द्वारा हिरण्यवृष्टि, भगवान् का जन्म, इन्द्रों द्वारा मन्दराचल पर्वत पर भगवान् का जन्माभिषेक, भगवान् के समय की तत्कालीन स्थिति एवं ऋषभदेव के द्वारा नवनिर्माण शिल्पादि की शिक्षा, त्रिवर्ण की स्थापना का वर्णन अति संक्षिप्त रूप से किया गया है। उसके पश्चात् सुमंगला एवं नन्दा से उनका पाणिग्रहण हुआ । संतानोत्पत्ति के पश्चात् नीलाञ्जना नाम की अप्सरा के मनोहारी नृत्य में मृत्यु का दृश्य देखकर ऋषभदेव विरक्त हुए और उन्होंने 'वसंततिलक' उद्यान में चार सहस्र अनुगामियों के साथ 'पंचमुष्टि लोच' कर संयम ग्रहण किया। भिक्षा न मिलने से छह मास के भीतर चार हजार श्रमण पथ- विचलित हो गये । आकाशवाणी सुनकर वे चार हजार श्रमण वल्कलधारी बनकर वृक्षों से फल, फूल, कन्द आदि का आहार करने लगे । धरणेंन्द्र द्वारा नमि - विि ४२ ४३ तत्थ सामी पियामहो सुविहि विज्जपुत्तो केसवो नामं जातो। अहं पुण सेट्ठिपुत्तो अभयघोसो । -वसुदेव-हिंडी, नीलयशा लंभक, पृ १७७ भयव च जयगुरु उसभसामी....दसहिं समणसहस्सेहिं.... एकगूणपुतसएण अट्ठहि य नत्तुयएहिं सह एगसमयेण निव्वुओ। वही, सोमश्री लंभक, पृ. १८५ श्री विमलसूरि बिरचित, सम्पादक- श्री पुण्यविजयी महाराज, प्रकाशक- प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी- ५, ई. सन् १९६२ । सिद्धाणं नमुक्कारं, काऊण य पञ्चमुट्ठीयं लोयं । चउहिं सहस्सेहिं समं, पत्तो य जिणो परमदिक्खं ।। Rushabhdev: Ek Parishilan - पउमचरियं ३१।६३ as 234 a

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87