Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 15
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth समस्त भोगों से विरक्ति हो गयी। इस अवसर पर लोकान्तिक देवों के आगमन तथा इन्द्र द्वारा ऋषभ के दीक्षा अथवा तपः कल्याणक करने का उल्लेख मिलता है।३८ ऋषभ अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को साम्राज्य पद तथा बाहुबली को युवराज पद पर अधिष्ठित कर स्वयं इन्द्र द्वारा उठाये गये पालकी में बैठ सिद्धार्थक नामक वन में गये और वहाँ वस्त्र, माला व अन्य आभूषणों का त्याग कर, पंचमुष्टियों से केश-लुंचन कर दिगम्बर रूप धारण कर दीक्षा ग्रहण की।३९ इन्द्र ऋषभ के केश क्षीरसागर में प्रवाहित कर तथा अनेक प्रकार से उनकी स्तुति कर स्वर्ग चले गये। ऋषभ के साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हुए थे। उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में ऋषभ के चार मुष्टि केश-लुंचन का उल्लेख मिलता है। इन्द्र की प्रार्थना पर ऋषभ ने एक मुष्टि केश सिर पर ही रहने दिया था। उपर्युक्त परम्परा के कारण ही कुषाणकाल से सभी क्षेत्रों की मूर्तियों में ऋषभनाथ के साथ कन्धों पर लटकती हुई जटाएँ दिखाई गयीं। कल्पसूत्र एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में स्पष्ट उल्लेख है कि ऋषभ के अतिरिक्त अन्य सभी जिनों ने दीक्षा के पूर्व अपने मस्तक के सम्पूर्ण केशों का पाँच मुष्टियों में लुंचन किया था ।१० यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ऋषभ के पंचमुष्टि केश में लुंचन का उल्लेख हुआ है किन्तु मूर्त उदाहरणों में एलोरा, देवगढ़, खजूराहो तथा अन्य सभी दिगम्बर स्थलों पर श्वेताम्बर उदाहरणों के समान ही ऋषभ के कन्धों पर लटकती हुई जटाएँ दिखायी गयीं।४१ । दीक्षा धारण करने के पश्चात् ऋषभ छह माह तक उपवास का व्रत लेकर तपोयोग में अधिष्ठित हो गये।४२ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में केवल सात दिनों के महोपवास व्रत का उल्लेख है।४३ छह माह के महोपवास व्रत के बाद भी उनका शरीर पहले की तरह ही देदीप्यमान बना रहा तथा केश संस्कार रहित होने के कारण जटाओं के समान हो गये थे।४४ . अनेक वर्षों तक विभिन्न देशों में विहार करने के बाद ऋषभ पुरिमताल नामक नगर में पहुँचे और वहाँ शकट नामक उद्यान में एक वट वृक्ष के नीचे चित्त की एकाग्रता तथा विभिन्न मोहनीय कर्मों पर विजय प्राप्त कर फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र में उन्होंने केवलज्ञान की प्राप्ति की।४५ तत्पश्चात् ऋषभ विभिन्न देवों द्वारा निर्मित समवसरण के तीसरे पीठ पर स्थित सिंहासन पर विराजमान हुए और कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् पहला उपदेश दिया।४६ समवसरण में विभिन्न तत्त्वों का निरूपण करने के बाद ऋषभ गणधरों के साथ अनेक वर्षों तक काशी, अवन्ति, कुरू, कौशल, सुह्या, पुण्ड चेदि, मालव, दशार्णव विदर्भ आदि देशों में विहार करते रहे और आयु की समाप्ति के चौदह दिन पूर्व पौष मास की पूर्णमासी के दिन कैलाश पर्वत पर विराजमान हुए।४७ यहीं पर माघकृष्ण चतुर्दशी के दिन अभिजित नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।४८ ३८ ४० आदिपुराण १७. १०-२८) आदिपुराण १७. ४६-४७, ७२-७४। आदिपुराण १७.७६-७७, ९४, १८२-१९०,१९४-२०१। केशलोंच करते समय इन्द्र के कहने पर वृषभदेव ने कुछ केश छोड़ दिये थे जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। कल्पसूत्र १९५, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र ३.६०-७०। मारुतिनन्दन तिवारी, एलिमेन्ट्स ऑफ जैन आइकनोग्राफी, पृ. २४, ३२। आदिपुराण १८. १-२। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १.६, ४५९-४९३ | आदिपुराण १८. १-२ आदिपुराण २०. २१८-२६८। आदिपुराण २३. ७५ आदिपुराण २५. २८७४७. ३२२-३२३। आदिपुराण ४७. ३३८-३४२। ४७ ४८ -33 2232 Jain Mahapuran

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