Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 12
________________ पहला अध्याय अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य अपभ्रंश की भूमिका भाषा, समाज और संस्कृति का अभिन्न संबंध है। संस्कृति के अपने कोई पैर नहीं होते, वह तो भाषा और समाज के पैरों पर चलती है। यदि भाषा और समाज सशक्त होते हैं तो संस्कृति का तेज दूर-दूर तक फैल जाता है । यदि भाषा और समाज लड़खड़ाता है तो संस्कृति लड़खड़ा जाती है । जिस समाज का ध्यान अपनी सांस्कृतिक भाषा से हटता है उस समाज के सांस्कृतिक मूल्य धीरे-धीरे विस्मृत हो जाते हैं। जिस समाज में हमें सांस्कृतिक भाषा-चेतना कम दिखाई दे वह समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ता दिखाई देगा। वास्तव में भाषा को भूलना संस्कृति को भूलना है । लोक-भाषा ही सांस्कृतिक मूल्यों की वाहक होती है। लोक समुन्नत हो इसके लिए लोक-भाषा का प्रयोग महत्वपूर्ण है । यही कारण है कि तीर्थंकर महावीर ने धर्म-प्रचार के निमित्त तत्कालीन लोक-भाषा 'प्राकृत' का प्रयोग किया। भारत में अति प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए लोक-भाषा में साहित्य लिखा जाता रहा है। जीवन के विविध मूल्यों के प्रति जनता को जागृत करना और लोक-जीवन के विविध पक्षों को लोक-भाषा में अभिव्यक्त करना - ये दोनों ही बातें महत्वपूर्ण समझी जाती रही हैं । अपनी व्यक्तिगत अनुभूति के माध्यम से साहित्यकार जन-चेतना में नये तत्वों का प्रवेश कराने के लिए लोक-भाषा को चुनकर उसमें सांस्कृतिक प्राणों का संचार करता है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक काल में भी लोकभाषा प्राकृत का अस्तित्व रहा है । यदि हम कहें कि वैदिक भाषा प्राकृत के तत्वों को प्रचुर मात्रा में समेटे हुए है तो अत्युक्ति नहीं होगी। 'प्राकृत' महावीर, बुद्ध और आस-पास के लाखों लोगों की मातृभाषा रही है। कुछ शताब्दियों तक प्राकृत में विभिन्न प्रकार का साहित्य लिखा जाता रहा। यह एक वास्तविकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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