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महत्व की प्रवृत्ति, (5) प्रगतिशीलता की प्रवृत्ति जिसमें नारी का सम्मान, जातिवाद का विरोध, दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति, पारलौकिकता का विरोध आदि सम्मिलित हैं।
(1) अपभ्रंश के प्रेमाख्यान काव्यों में नायक-नायिका के प्रेम-व्यापारों का निर्द्वन्द्व भाव से चित्रण हुआ है। हेमचन्द्र के दोहे प्रेम-शृंगार से भरे हैं । मुंज के दोहों में भी प्रेम-श्रृंगार का भाव देखा जा सकता है । संदेशरासक प्रेम-श्रृंगार की प्रवृत्ति से भरा हुआ काव्य है । अपभ्रंश साहित्य की यह प्रवृत्ति हिन्दी साहित्य में रीतिकाल के काव्य की आधारभूमि प्रतीत होती है । अपभ्रंश के प्रमुख प्रेमाख्यान काव्य हैं - (1) विलासवई कहा (11 संधि), साधारण सिद्धसेन (10वीं शती), (2) जिणदत्तकहा (11 संधि), लाखू (13वीं शती), (3) जिणदत्तचउपई, दल्हकवि (13वीं शती), (4) पउमसिरिचरिउ, धाहिल (11वीं शती), (5) सुदंसणचरिउ (नयनन्दी), (6) सुदर्शनचरित्र (माणिक्यनन्दी)। __(2) पृथ्वीराज रासो, भरतेश्वर बाहुबली रास, कीर्तिलता आदि ग्रन्थों में वीरता और शौर्य का रूप मिलता है।
(3) धर्म और नीति के उपदेश अपभ्रंश के ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। देवसेन का सावयधम्मदोहा, हेमचन्द्र के दोहे, स्वयंभू-कृत पउमचरिउ, पुष्पदंत का महापुराण, प्राकृत पैंगलम् आदि इन सभी ग्रन्थों में धर्म-नीति के वचन प्रचुरता से मिलते हैं । हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश की यह प्रवृत्ति भक्तिकाल के कवियों में देखी जा सकती है।
(4) अपभ्रंश में जैन भक्ति की रचनाएँ अनेक हैं । श्रुतपंचमी कथा (धनपाल, 11वीं शती) का मूल स्वयं जिन-भक्ति से युक्त है । उपदेश रसायन रास (जिनदत्त सूरि, 13वीं शती) में गुरुभक्ति के अनेक दृष्टांत हैं। थूलिभद्द फाग (जिनपद्म सूरि) आचार्य स्थूलभद्र की भक्ति में लिखा गया है। योगीन्दु का परमात्मप्रकाश (छठी शती), मुनि रामसिंहकृत दोहापाहुड रहस्यवादी कृतियाँ हैं। हिन्दी के भक्तिकालीन रहस्यवाद पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है। महात्मा आनन्दतिलक-कृत आणंदा (14वीं शती) में सद्गुरु का स्थान-स्थान पर महत्व बताया गया है। कबीर, दादू, रैदास आदि संतों पर योगीन्दु, मुनि रामसिंह आदि आध्यात्मिक कवियों का पूरा प्रभाव है। गुरु की महिमा का भी इन कवियों ने भरपूर वर्णन किया है। अपभ्रंश और हिन्दी
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