Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 59
________________ दूसरा प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में आह्लादित और तीसरा लौकिक परिवेश में भी अलौकिक आनन्द से तन-मन को सराबोर करता है। 14 विकास-परम्परा की दृष्टि के कुछ उल्लेखनीय फागु-काव्य निम्न हैं - बसन्तविलास-फागु (अज्ञात), नारायण-फागु, चतुर्भुज कवि का भ्रमरगीतफागु, हरिविलासु-फागु, विरह देसाउरी-फागु, चुपइ-फागु-ये सभी जैनेतर फागु ग्रंथ हैं जिनमें कृष्ण, गोपियों, राधा, रुक्मिणी आदि से संबंधित गान हैं। जैन फागु ग्रन्थों में जिनपद्म सूरि का थूलिभद्द-फागु, राजशेखर सूरि का नेमिनाथ-फागु, प्रसन्नचन्द सूरि का रावणि पार्श्वनाथ-फागु, जिनदत्तसूरि-फागु, जयशेखर सूरि का नेमिनाथ-फागु, पुरुषोत्तम पाँच पाण्डव-फागु, कीर्तिरत्नसूरिफागु, पद्म कवि का नेमिनाथ-फागु, गुणचन्द गणि का बसन्त-फागु, अज्ञात कवि का मोहिनी-फागु आदि। चर्चरी - फागु की भाँति यह भी लोकगीत ही है। इसका सही व यथार्थ स्वरूप फाल्गुन के दिनों में गाये जानेवाले लोकगीतों में देखा जा सकता है। ये चर्चरी गीत चंग बाजे पर गाये जाते हैं जो बसन्त की शोभा कहे जा सकते हैं। चर्चरी काव्यरूप में निर्मित रचनाएं संख्या में अधिक नहीं हैं । जिनदत्त सूरि ने अपनी कृति चांचरि अथवा चच्चरी में अपने गुरु जिनवल्लभसूरि का गुणगान किया है । यह 47 पद्यों की छोटी रचना है। 14वीं शती के कवि सोलण की कृति चर्चरी में गिरनार तीर्थ पर ध्यानस्थ नेमिनाथ का यशगान है। इसी प्रकार समाज के कष्ट-निवारणार्थ लिखित जिनेश्वर सूरि की चाचरि, चाचरि-स्तुति तथा गुरुस्तुति-चाचरि आदि रचनाएँ ही प्राप्त होती हैं । दोहा-काव्य - मात्रिक छन्दों में दोहा अपभ्रंश का सर्वाधिक प्रिय छन्द रहा है। अपभ्रंश की अनेक रचनाओं के दोहा छन्द में रचित होने के कारण दोहा काव्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ। अत: काव्य-रूप में दोहा-काव्य महत्वपूर्ण बन गया। यह अपभ्रंश का मौलिक छन्द है और पश्चिमी अपभ्रंश की उपज है। डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' लिखते हैं- "विकास की दृष्टि से दोहों की मुक्तक परम्परा बौद्धों की पूर्वी परम्परा न होकर जैन तथा जैनेतर कवियों की पश्चिमी अपभ्रंश की चिरंतन परम्परा है और परवर्ती हिन्दी साहित्य में मध्यकालीन 48 अपभ्रंश : एक परिचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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