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'कवि नयनंदी उदात्त भाव के कवि हैं। इनकी कृति में आत्मा के उत्थान का परमोदात्त रूप चित्रित हुआ है। बारह संधियों में रचित 'सुदंसणचरिउ ' को पढ़ लेने के बाद भारतीय संस्कृति का वह उदात्त रूप स्पष्ट होता है जो भोग के स्थान पर त्याग एवं वैराग्य को समेट कर चलता है । व्यक्ति इच्छाओं एवं वासनाओं की पूर्ति का अधम साधन मात्र नहीं है वरन् है आत्म-शक्ति से सम्पन्न प्रज्ञा - पुरुष । " सुदंसणचरिउ' में जहाँ एक ओर विलास की अपकर्षता है वहाँ दूसरी ओर एक महामानव के चरमोत्कर्ष की गाथा भी है । "61
'सुदंसणचरिउ' में जिस जीवन-दर्शन को स्वीकार किया गया है वह वासना की विडम्बना, इन्द्रिय-विजय की सुफलता, धर्म की दुर्लभता एवं सम्यक्ज्ञान का प्रतिपादक है 12 भाषा की दृष्टि से कवि श्री नयनंदी की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है । तत्सम तद्भव और देशी शब्दों के व्यवहार से भाषा में सरलता और सरसता का संचार हुआ है । उसमें भी देशी शब्दों की बहुलता कवि-काव्य की अपनी विशेषता है। महाकवि नयनंदी अलंकारयुक्त काव्य को ही संसार की सर्वाधिक सरस उपलब्धि बतलाता है । सुदंसणचरिउ में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार की तो भरमार है ही, अन्य अलंकार भी यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं। छन्दों की विविधता की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों में 'सुदंसणचरिउ' का महत्व उल्लेखनीय है । इसमें 85 छन्दों का व्यवहार हुआ है । जितने अधिक छन्दों का प्रयोग इस रचना में हुआ है उतना अन्यत्र नहीं दिखाई देता । विविध वर्णों का ऐसा सुन्दर संयोजन बहुत कम रचनाओं में उपलब्ध होता है । इस काव्य की यह भी विशेषता है कि कवि ने अनेक स्थलों पर छन्द का नाम सूचित किया है । कई छन्द नये हैं जिनके नाम और लक्षण तक अन्यत्र नहीं मिलते 164 नयनंदी की दूसरी रचना 'सयलविहिविहाणकव्व' है जो अभी तक अप्रकाशित है । कनकामर ( 11वीं शती) अपभ्रंश की प्रबन्धधारा में महाकवि मुनि कनकामर का 'करकंडचरिउ ' एक लोकप्रिय काव्य है । यह 10 संधियों में पूर्ण हुआ है। बुन्देलखण्ड की आसाइय नगरी में इनका जन्म हुआ था। इनके गुरु का नाम पं. मंगलदेव था । इन्होंने अपने काव्य में सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदंत का उल्लेख किया है। इस काव्य की रचना श्रुतपंचमी के फल तथा पंचकल्याणक विधि की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर की है। इसमें कई कथाओं का संग्रह है तथा मंदिर के शिल्प का वर्णन भी है।
अपभ्रंश : एक परिचय
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