Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 50
________________ डॉ. नामवरसिंह का कथन है - "अपभ्रंश में आधुनिक देशी बोलियों का जितना प्रगाढ़ मिश्रण पूर्वी प्रदेशों में दिखाई पड़ता है, उतना पश्चिमी में नहीं। पश्चिमी प्रदेश की साहित्यिक भाषा बहुत दिनों तक परिनिष्ठित अपभ्रंश से प्रभावित रही, किन्तु पूर्व के लिए वह शुरू से ही मात्र साहित्यिक भाषा होने के कारण स्थानीय बोली से अलग रही है। फलतः पूरब में देशी बोलियों का उभार बहुत तेजी से हुआ।"13 यह देश-भेद धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि तेरहवीं शताब्दी में जाते-जाते अपभ्रंश के सहारे ही पूरब और पश्चिम के देशों ने अपनी बोलियों का स्वतंत्र रूप प्रकट कर दिया। इस तरह से परवर्ती अपभ्रंश नयेनये रूप धारण करती गई और 14वीं शती से नई-नई भाषाओं की सत्ता दिखाई देने लगी। इन आधुनिक भाषाओं का उदय और विकास अपभ्रंश के ही गर्भ में धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा था। एक ओर साहित्यिक अपभ्रंश के रूप धीरे-धीरे अप्रचलित होते गये और दूसरी ओर आधुनिक भाषाओं के नये रूप प्रचलन में आते रहे। क्रमशः प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से ही आधुनिक भाषाओं का उदय हुआ। आधुनिक भाषाओं के नये-नये रूप निश्चय ही उनकी प्रादेशिक बोलियों से आते रहे हैं।''15 उपर्युक्त विवेचन की पृष्ठभूमि में कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश के विभिन्न स्थानीय भेदों से हुआ है । ये भाषाएँ निम्नलिखित हैं16 - (क) पूर्वी भाषाएँ (1) पूर्वी हिन्दी, (2) बिहारी, (3) उड़िया, (4) बंगला, (5) असमिया (ख) पश्चिमी भाषाएँ (1) गुजराती, (2) राजस्थानी (ग) उत्तरी भाषाएँ (1) सिंधी, (2) लहन्दा, (3) पंजाबी (घ) दक्षिणी भाषा (1) मराठी (ङ) मध्यदेशीय भाषा (1) पश्चिमी हिन्दी परवर्ती अपभ्रंश 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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