Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 53
________________ जय रिसह रिसीसरणवियपाय.... जय रिसह रिसीसरणवियपाय जय अजिय जियंगयरोसराय। जय संभव संभवकयविओय जय अहिणंदण णंदियपओय। जय सुमइ सुमइसम्मयपयास जय पउमप्पह पउमाणिवास। जय जयहि सुपास सुपासगत्त जय चंदप्पह चंदाहवत्त। जय पुष्फयंत दंतंतरंग जय सीयल सीयलवयणभंग। जय सेय सेयकिरणोहसुज जय वासुपुज पुजाणुपुज्ज। जय विमल विमलगुणसेढिठाण जय जयहि अणंताणतणाण। जय धम्म धम्मतित्थयर संत जय संति संतिविहियायवत्त। जय कुंथु कुंथुपहुअंगिसदय जय अर अरमाहर विहियसमय। जय मल्लि मल्लियादामगंध जय मुणिसुव्वय सुव्वयणिबंध। जय णमिणमियामरणियरसामि जय णेमि धम्मरहचवणेमि। जय पास पासछिंदणकिवाण जय वड्ढमाण जसवड्ढमाण। इय जाणियणामहि दुरियविरामहि परिहिवि णवियसुरावलिहिं॥ अणिहणहि अणाइहि समियकुवाइहि पणविवि अरहंतावलिहिं॥ जसहरचरिउ, 2.2 महाकवि पुष्पदन्त जय हो आपकी, हे ऋषभ, जिनके चरणों में ऋषीश्वर भी नमन करते हैं। जय हो, हे अजित, जिन्होंने शरीर के दोषों तथा राग-द्वेष आदि विकारों को जीता है। सम्भव की जय हो जिन्होंने जन्म-मरण की परम्परा को विनष्ट किया, तथा अभिनन्दन की जय हो जिन्होंने जीव के आचार-व्यवहार को आनन्दप्रद बनाया। जय हो, हे सुमति, जिन्होंने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान किया।लक्ष्मी के निवास पद्मप्रभ, आपकी जय हो। जिनका शरीर सुन्दर पार्यों से सुशोभित है ऐसे हे सुपार्श्व, जय हो आपकी, तथा जय हो उन चन्द्रप्रभ की जिनका मुख चन्द्र की आभायुक्त है। जिन्होंने अपने अन्तरंग शत्रुओं का दमन किया है वे पुष्पदन्त जयवन्त हों तथा प्रवचन की शीतल शैली के विधाता शीतल की जय हो। उज्ज्वल किरणसमूहयुक्त सूर्यरूप हे श्रेयांस, आपकी जय हो और जय हो पूज्यों द्वारा पूज्य वासुपूज्य की। हे निर्मल गुणों की श्रेणी के आश्रय विमल, जय हो आपकी, एवं जय हो उन अनन्त की जो अनन्त ज्ञान के धारक हैं । हे धर्मरूपी तीर्थ के संस्थापक धर्मनाथ, जय हो आपकी तथा जय हो उन शान्तिनाथ की जिन्होंने लोक की शान्ति के लिए धर्मरूपी छत्र का विधान किया है । कुन्थु आदि शरीरधारी जीवों पर दया करनेवाले कुन्थुनाथ, आपकी जय हो, एवं जय हो उन अरहनाथ की जिन्होंने अलक्ष्मी का अपहरण तथा सम्यग्ज्ञान का विधान किया है। चमेली की पुष्पमाला समान सुगन्धयुक्त मल्लिनाथ, जय हो तथा जय हो मुनिसुव्रत की जिन्होंने उत्तम व्रतों की मर्यादा बाँधी है। जिन्हें देवसमूहों के इन्द्र भी नमन करते हैं ऐसे हे नमि; आपकी जय हो एवं जय हो हे नेमि, आपकी जो धर्मरूपी रथ के चक्र की नेमि हैं। संसार के बन्धनों को काटनेवाले कृपाण हे पार्श्वनाथ, जय हो आपकी तथा जय हो वर्धमान तीर्थंकर की जिनका यश अब भी वृद्धिशील है। इस प्रकार मैं उन तीर्थंकरों के समूह का आश्रय लेता हूँ व उनको प्रणाम करता हूँ जिनके नाम सुविख्यात हैं, जो पापों का शमन करते हैं, देवसमूहों द्वारा वन्दित हैं, जो अनादि-निधन हैं, तथा कुवादियों को शान्त करनेवाले हैं। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन 42 अपभ्रंश : एक परिचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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