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दूसरा अध्याय
परवर्ती अपभ्रंश
I
'अपभ्रंश' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वैयाकरण पतंजलि ( 150 ई. पू.) ने महाभाष्य में किया। उनका उद्देश्य संस्कृत के एक शब्द के प्रचलित कई रूपान्तरों को बताना ही था । जैसे 'गौ' शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि विविध रूप हैं । यह विविधता ही उनकी दृष्टि में अपभ्रंश थी । किन्तु भामह और दंडी (छठी शती) के समय तक अपभ्रंश साहित्यिक भाषा बन गई थी और इसमें काव्य-रचना होने लगी थी । इसका अभिप्राय यह है कि अपभ्रंश पतंजलि के समय से भामह तक लोक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी और उसमें साहित्य-रचना होने लग गई थी। यह एक भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि लोकभाषा ही साहित्यिक भाषा के लिए आधार बनती है। लोक- भाषा अपने परिवर्तनशीलता के नियम को नहीं छोड़ती। वह कभी प्राकृत हो जाती है, कभी अपभ्रंश और कभी कोई अन्य भाषा । डॉ. नामवरसिंह के अनुसार " प्रत्येक युग में साहित्यारूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी भाषा (लोक - भाषा) अवश्य रही है और यही देशी - भाषा ( लोक भाषा) उस साहित्यिक भाषा को नया जीवन प्रदान कर सदैव विकसित करती चलती है ।""
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यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अपभ्रंश का विकास प्राकृत - काल की लोक-भाषा से हुआ और यह भाषा साहित्यारूढ़ होकर 1000 ई. तक काव्यरचना का माध्यम रही। बाद में भी इसी भाषा में काव्य-रचना होती रही । किन्तु हेमचन्द्र ( 12वीं शती) के समय तक साहित्य में अपभ्रंश का एक रूप स्थिर व परिनिष्ठित हो चुका था । अपभ्रंश के परवर्ती कवियों ने अपभ्रंश व्याकरण को सामने रखकर ही साहित्य-निर्माण किया। ऐसे प्रयत्न हेमचन्द्र के तीन सौ वर्ष बाद तक होते रहे। इधर परिनिष्ठित अपभ्रंश में काव्य लिखे जा रहे थे और उधर लोक- भाषा परिवर्तनशीलता के आधार पर नया रूप ग्रहण कर रही थी । डॉ. नामवरसिंह के अनुसार - "हेमचन्द्र के बाद अपभ्रंश काव्य की एक और
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