Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ भरत मुनि ने जिस उकारबहुला भाषा का क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत बतलाया है वह आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा बन गई थी। डॉ. नामवरसिंह के अनुसार - " यह एक भाषा-वैज्ञानिक तथ्य है कि राजनीतिक और आर्थिक उन्मुखता के कारण विविध स्थानीय बोलियाँ एक विशाल राष्ट्रीय भाषा के रूप में ढल जाती हैं। नवीं शताब्दी में उत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि बंगाल में पाल तथा मान्यखेट में राष्ट्रकूट राजाओं ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। पाल और राष्ट्रकूट राजा देसीभाषा के संरक्षक थे। सरह, काण्ह आदि चौरासी सिद्ध कवि पालों के शासनकाल में हुए। उधर स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे अपभ्रंश कवियों की शक्ति का प्रस्फुटन राष्ट्रकूटों की छत्रछाया में हुआ।इसलिए आरंभ में तत्कालीन बोलियों को अपभ्रंश के रूप में केन्द्रित करने और इस तरह उसे विकसित करने का श्रेय मुख्यत: राष्ट्रकूटों को है।" दसवीं शताब्दी का अंत होते-होते मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के स्थान पर गुजरात में सोलंकी और चालुक्यों की शक्ति प्रबल हो गई; जिसमें सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल अपभ्रंश साहित्य के उन्नायक रहे। अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान हेमचन्द्र सूरि को संरक्षण देने का श्रेय सिद्धराज को ही है। साहित्य-सृजन के लिए हेमचन्द्र को धन और जन की जितनी सुविधाएँ राज की ओर से दी गई थीं, वह उस युग में किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था। कुमारपाल ने भी अपभ्रंश को पर्याप्त संरक्षण दिया।2। ___ "मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के बाद पाटण के सोलंकी दूसरे राजा हुए जिन्होंने अपभ्रंश भाषा और साहित्य के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। सोलंकियों के शासनकाल में गुजरात का वैभव पराकाष्ठा पर था। वाणिज्य और संस्कृति दोनों में वह भारत का सिरमौर हो रहा था। स्वाभाविक था कि ऐसे राज्य की साहित्यिक भाषा अपभ्रंश उस समय की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो।'13 अपभ्रंश साहित्य की खोज व उसका क्षेत्र ___ यहाँ यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जब पिशेल द्वारा 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' लिखा जा रहा था तो उन्हें हेमचंद्र के व्याकरण में उद्धृत अपभ्रंश भाषा के नमूनों को छोड़कर अपभ्रंश का अन्य कोई साहित्य उपलब्ध नहीं हो सका था। हर्मन जेकोबी ने अपभ्रंश साहित्य के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था। वे इसकी खोज में लग गए। वे दो बार जर्मनी से भारत आए। अपभ्रंश : एक परिचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68