Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 29
________________ - ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ प्रथमो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [२३ इन नौ अध्ययनों के विपय मे हस्त-लिखित प्रतियों मे निम्न-लिखित पाठभेद मिलता है ___एवं सेसाणवि नवण्हं भाणियव्वं नवरं सत्तण्हं धारिणिसुया, विहल्ले विहायसे चेल्लणाअत्तए, अभय नंदाएअत्तइ । आइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासाइं सामण्णं परियाओ पाउणित्ता, तिण्हं वारस वासाई दोहं पंच वासाई | आइल्लाणं पंचण्हं आणुपुव्वीए उववाओ विजए, विजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे दीहदंते, सव्वट्ठसिद्धे, लट्ठदंते अपराजिए, विहल्ले जयंते, विहायसे विजयंते, अभय विजए । सेसं जहा पढमे तहेव । एवं खलु जंबु । समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते । इति प्रथम-वर्गः समाप्तः।" हमने यहां पत्राकार मुद्रित पुस्तक का ही पाठ मूल रूप में रखा है। मुद्रित पुस्तक मे जैसे कि पाठकों को हमारे मुद्रित मूल से ज्ञात होगा शेष आठ अध्ययनों के विषय मे ही पाठ दिया गया है। किन्तु लिखित प्रतियों मे जैसा कि ऊपर दिया गया है पूरे नौ अध्ययनों के विपय मे कहा गया है । किन्तु इस मे कोई भेद नहीं पड़ता, क्योंकि मुद्रित पुस्तक मे भी पहले आठ का वर्णन देकर अन्त मे अभय कुमार का भी पृथक् वर्णन दे दिया गया है और लिखित प्रतियों मे सब का संग्रह-रूप से ही दिया है । अतः इस मे कोई विशेप आपत्ति न देखकर ही हमने मुद्रित पुस्तक का पाठ ही मूल मे रखा है। इम सूत्र से पाठकों को शिक्षा लेनी चाहिए कि वे भी कर्म-विशुद्धि के उपायों का अन्वेपण करे । इस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक सूत्र के प्रथम-वर्ग का अर्थ प्रतिपादन किया है। श्री सुधा स्वामी के इस प्रकार कथन से उनकी गुरु-भक्ति प्रकट होती है । साथ ही आत्मोद्धतता का परिहार और शास्त्र की सप्रयोजनता भी सिद्ध होती है । जम्बू स्वामी ने उनके इस कथन को सहर्ष स्वीकार किया। इससे इस सूत्र की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। आप्त-वाक्य सर्वत्र ही प्रामाणिक होते हैं । अतः यह सूत्र भी आप्त-वाक्य होने से निःसन्देह ही प्रमाण-कोटि मे है। प्रथमो वर्गः समाप्तः।

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