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अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ।
[ तृतीयो वर्गः
इतना सर्वोत्तम लाभ होता है। उनकी भक्ति कोई क्यों न करे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति उनकी भक्ति मे लीन होकर उस अलभ्य पद की प्राप्ति करनी चाहिए । भगवान् को अप्रतिहत-ज्ञान-दर्शन-धर बताया गया है उसका अभिप्राय यह है । (अप्रतिहतेकटकुट्यपर्वतादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वाक्षायिकत्वाद्, वरे-प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरस्तेन) अर्थात् किसी प्रकार से भी स्खलित न होने वाले सर्वोत्तम सम्यग् ज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान और केवल दर्शन धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् की जब शुद्ध चित्त से भक्ति की जायगी तो आत्मा अवश्य ही निर्वाण-पद प्राप्त कर तन्मय हो जायगा । ध्यान रहे कि इस पद की प्राप्ति के लिये सम्यग् ज्ञान-दर्शन और सम्यक् चारित्र के सेवन की अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति की भक्ति करते हैं तो हमारा ध्येय सदैव उसी के समान बनने का होना चाहिए । तभी हम उसमे सफल हो सकते है । पहले हम कह चुके हैं कि कर्म ही सांसारिक बन्ध और मोक्ष के कारण है । उनका क्षय करना मुमुक्षु का पहला ध्येय होना चाहिए । जब तक एक भी कर्म अवशिष्ट रहता है तब तक कोई भी निर्वाण-रूप अलौकिक पद की प्राप्ति नहीं कर सकता है। उनका क्षय या तो उपभोग से होता है या ज्ञानाग्नि के द्वारा। यदि भोग के ऊपर ही उनको छोड दिया जाय तो उनका नाश कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उनके उपभोग के साथ २ नये कर्म सञ्चित होते जाते है, जो उसको फिर उसी बन्धन मे डाल देते हैं । अतः ज्ञानाग्नि से शीघ्र उनका क्षय करना चाहिए । वह ज्ञान साधु आचरण के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । इसी लिये कहा भी है 'ज्ञानक्रियाभ्या मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया के सहयोग से ही मोक्ष होता है । सिद्ध यह हुआ कि भगवद्-भक्ति के साथ २ सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आसेवन भी आवश्यक है।
इस प्रकार ज्ञान और चारित्र की सहायता से धन्य अनगार आदि और उनके समान अन्य महापुरुप अनुत्तर विमानों में देव-रूप से उत्पन्न होते है और जो इन विमानों में उत्पन्न होते है वे अवश्य ही मोक्ष-गामी होते है । अत एव प्रस्तुत सूत्र में उन्हीं व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो उक्त विमानों में जाकर उत्पन्न हुए हैं।