Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 79
________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [ ७७ वन्दना और नमस्कार कर जेणेव-जहां धने-धन्य अणगारे-अनगार था तेणेव-वहीं उवागच्छति २-आता है और आकर धन्न-धन्य अणगारं-अनगार को तिक्खुत्तोतीन बार आयाहिणपयाहिणं-आदक्षिणा और प्रदक्षिणा कर वंदति-उनकी वन्दना करता है और णमंसति-उनको नमस्कार करता है । वन्दना और नमस्कार कर एवं-इस प्रकार वयासी-कहने लगा देवाणु०-हे देवानुप्रिय ' तुर्म-तुम धरणेसिधन्य हो सुपुरणे-तुम्हारे अच्छे पुण्य हैं सुकयत्थे-तुम कृतार्थ हुए कयलक्खणेशुभ लक्षणों से युक्त हो देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय माणुसए-मानुष जम्मजीवियफले-जन्म के जीवन का फल तुमने सुलद्धे-अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है तिकटु-इस प्रकार स्तुति कर वंदति-उनकी वन्दना करता है और णमंसति--उनको नमस्कार करता है और वन्दना और नमस्कार करके जेणेव-जहां समणे०-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे तेणेव- वहीं उवागच्छति २-आता है और आकर समणं-श्रमण भगवं-भगवान महावीरं-महावीर स्वामी की तिक्खुत्तो-तीन बार वंदति-वन्दना करता है और उनको णमंसति-नमस्कार करता है, वन्दना और नमस्कार कर जामेव-जिस दिसं-दिशा से पाउन्भूते-प्रकट हुआ था तामेव-उसी दिसं-दिशा को पडिगए-वापिस चला गया। सूत्रं ४-चौथा सूत्र समाप्त हुआ। मूलार्थ-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसके बाहिर गुणशैलक नाम का चैत्य या उद्यान था। वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उक्त चैत्य में विराजमान हो गये। नगर की जनता यह सुनकर नगर से बाहर निकली और श्री भगवान् की सेवा में उपस्थित हुई और साथ ही श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ। श्री भगवान् ने धर्म-कथा सुनाकर सब को सन्तुष्ट किया और सब लोग नगर को वापिस चले गये । श्रेणिक राजा ने इस कथा को सुन कर और उसका मनन कर श्री भगवान् की वन्दना की और उनको नमस्कार किया । फिर वन्दना और नमस्कार कर बोला-"हे भगवन् ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौनसा श्रमण अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है " यह सुनकर श्री भगवान् कहने लगे-“हे श्रेणिक ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बडा

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