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तृतीयो वर्गः ]
भाषाटीकासहितम् ।
स्वामी काकन्दी नगरी के बाहर विराजमान हो गये । जिस प्रकार धन्य कुमार उनके मुखारविन्द से धर्म-कथा सुनने के लिए गया था उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार भी गया और जिम प्रकार स्त्यावत्यापुत्र दीक्षित हुआ था उसी प्रकार वह भी हो गया । अनगार होकर वह ईर्ष्या-समिति वाला और माधु के सब गुणों से युक्त पूर्ण ब्रह्मचारी हो गया । इसके अनन्तर वह मुनक्षत्र अनगार जिसी दिन मुण्डिन हो प्रब्रजित हुआ उसी दिन से उसने अभिग्रह धारण कर लिया । फिर जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार वह भोजन करने लगा । संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । इसी बीच श्री भगवान् महावीर स्वामी जनपद - विहार के लिये बाहर गये और मुनक्षत्र अनगार ने एकादशाङ्ग शास्त्र का अध्ययन किया । वह संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । तदनु अत्यन्त कठोर तप के कारण जिस प्रकार स्कन्दक कृश हो गया था उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार भी हो गया ।
जोहरी वाज
दूरभाष
[36-02
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टीका — इस सूत्र में सुनक्षत्र अनगार का वर्णन किया गया है। सूत्र का अर्थ मूलार्थ में ही स्पष्ट कर दिया गया है । उदाहरण के लिये सूत्रकार ने स्त्याचत्यापुत्र और धन्य अनगार को लिया है । पाठकों को स्त्यावत्यापुत्र के विपय मे जानने के लिये ‘ज्ञाताधर्म-कथाङ्गसूत्र' के पांचवे अध्ययन का विधि-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए और धन्य अनगार का वर्णन इसी वर्ग के प्रथम अध्ययन मे आ चुका है ।
इस सूत्र मे प्रारम्भ मे ही "उक्खेवओ - उत्क्षेपः " एक पढ आया है। उसका तात्पर्य यह है कि इसके साथ के पाठ का पिछले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए अर्थात उसके स्थान पर निम्न लिखित पाठ पढ़ना चाहिए:
“जति णं भते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव मपत्तेणं नवमस्म अंगस्न अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्म अयमट्टे पण्णत्ते नवमस्म णं भंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयढसाणं तच्चस्स वग्गस्म चितियस्म अज्झयणम्म के अट्ठे पण्णत्ते ? ( यदि नु भदन्त । श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्मप्राप्तन नत्रमस्याट्गस्यानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञमः,