Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 6
________________ [5] **************************************************************** अभयकुमार ही थे, जिससे उसने प्रतिबुद्ध होकर श्रमण धर्म स्वीकार किया। इन्हीं के संसर्ग में आकर ही राजगृह का क्रूर कसाई कालशौकरिक का पुत्र सुलसकुमार भगवान् महावीर का परम भक्त बना। स्वयं अभयकुमार भी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत था और शीघ्र ही भगवान् के पास दीक्षित होना चाहता था। इसके लिए उन्होंने महाराजा श्रेणिक से अनेक बार निवेदन भी किया, पर श्रेणिक ने कहा - अभी तुम्हारी दीक्षा लेने की उम्र नहीं है। दीक्षा लेने की उम्र तो मेरी है। तुम राजा बनकर मगध देश का संचालन करना। अभयकुमार के अत्यधिक आग्रह करने पर श्रेणिक महाराज ने कहा कि जिस दिन मैं रुष्ट होकर तुम्हें कह दूं 'दूर हट जा मुझे अपना मुंह न दिखा', उसी दिन तू दीक्षा ले लेना। . __कुछ समय पश्चात् भगवान् का राजगृह नगर में पधारना हुआ। श्रेणिक महाराजा अपनी महारानी चेलना के साथ भगवान् के दर्शन करने गए। लौटते समय उन्होने एक मुनि को नदी के किनारे ध्यानस्थ खड़े देखा। सर्दी का समय था कड़कडाती ठण्ड पड़ रही थी। उस रात्रि को नींद में महारांनी का हाथ औढ़ने के वस्त्र से बाहर रह जाने से उसका हाथ ठिठुर गया। जिसके कारण महारानी की नींद उचट गई और उसके मुंह से अचानक शब्द निकल पड़े “वे क्या करते होंगे।" इन शब्दों से राजा के मन में रानी के चारित्र के प्रति संदेह हो गया। दूसरे दिन महाराजा श्रेणिक भगवान् के दर्शन करने जाते समय अभयकुमार को चेलना का महल जला देने की आज्ञा दे गये। अभयकुमार ने अपने बुद्धि कौशल से महल में रही रानियों को एवं बहुमूल्य वस्तुओं को बाहर निकाल कर महल में आग लगा दी। महाराजा श्रेणिक ने भगवान् के दर्शन किये और महारानी चेलना के शील के बारे में पूछा। प्रभु ने फरमाया चेलना आदि सभी रानियों पतिव्रतासदाचारिणी है। यह बात सुनकर महाराजा श्रेणिक को अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ। वे शीघ्र गति से चल कर राजमहल की ओर आने लगे। रास्ते में अभयकुमार मिल गया। राजा ने अभयकुमार को महल जला देने के बारे में पूछा। अभयकुमार ने राजा की आज्ञा के अनुसार महल जला देने की बात कही। जिससे राजा क्रोधित हो गया। क्रोध के वशीभूत बने हुए उनके मुंह से सहसा यह शब्द निकल गये “यहाँ से चला जा भूल कर भी मुझे मुंह मत दिखाना'। बस जिन शब्दों की लम्बे काल से अभयकुमार को प्रतीक्षा थी। वे शब्द सुनकर राजा साहब को नमस्कार कर सीधा भगवान् की सेवा में पहुंचा और दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, गुणरत्न संवत्सर आदि तप की आराधना की और अन्त में संलेखना संथारा करके विजय विमान में उत्पन्न हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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