Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 09
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 7
________________ तो कर्ता पोते ज आ शब्दो द्वारा कबूल करे छे : 'अभिनवग्रन्थारम्भं चैनं श्रम्यामि' (प्र-१), तथा 'श्रीस्तम्भनजिनचरिते, सूरि श्रीमेरूतुङ्गमतिलिखिते।' (प्र.१, अंत); आम छतां, एक गीतार्थ, शास्त्र तथा परंपराने वफादार, दोषभीरु एवा जैन आचार्य तरीके पोते क्यांय भूलमांय उत्सूत्र-सूत्रविपरीत आलेखन नथी करी नाखता ने ? तेवी तपास-जातनिरीक्षण-पोते वारंवार करतां रहे छे, अने पोताथी अजाणपणे पण तेवू थयु होय तो ते बदल क्षमाप्रार्थना पण कर्या करे छे, जे तेओनी पारदर्शक प्रमाणिकतानुं द्योतन करे छे. जेम के - (१) मदीयं वितथं वाक्यं, सत्यं वा वेत्ति कोऽपि किम् ? । प्रायः प्रमादिनां यस्माद्, दुःषमायां वचोऽनृतम् ॥ (प्र.१ आदि). (२) श्रीमेरुतुङ्गसूरेर्मा भूदुत्सूत्रपातकम् । मा भूदाशातना वार्ता, देवस्तम्भनवर्णने ॥ (प्र. १०) (३) आदिष्टं मद्गुरुणा, मत्पुरतो यद् यथैव चरितमिदम् । श्रीमेरुतुङ्गसूरि-स्तथैव तल्लिखति न परवचः ।। (प्र. १५) (४) श्रुत्वा केऽपि हसिष्यन्ति, प्रबन्धास्तलिनाशया । व्रजिष्यन्ति मुदं चाऽन्ये, सूरयो गूणभूरयः ।। (प्र. १७) (५) उत्सूत्रपातभीतस्य, मिथ्यादुःकृतमस्तु मे ॥ (प्र. २७) (६) न देयं दूषणं मह्यं कदा कोऽपि विपर्ययः ।। दुर्जेयं चरितं चित्रं, को जानाति महात्मनाम् ॥ (प्र. २८) (७) यदा प्रवर्तमानेषु, प्रबन्धेषु वचोऽनृतम् । शोधयन्तु कृपां कृत्वा, तज्ज्ञातारः कृतोऽञ्जलिः ॥ (प्र. ३०) (८) इहोत्सूत्रं भवेत् किञ्चित् प्रमादात्पतितं मम । शोधयन्तु कृपां कृत्वा, तदवद्यं बहुश्रुताः ॥ (प्र. ३२) ३. अने आ रचनाना अंतभागमां कर्ता स्वयं सूचवे छे तेम आ रचना मलधारगच्छना वडा श्रीराजशेखरसूरि ('प्रबन्धकोश'ना प्रणेता) वगेरेए प्रमाणित कर्या पछी ज कर्ताए तेने वहेती मूकी छे; आ रह्यु ए सूचक पद्य : मलधारिगच्छनायकसूरि श्रीराजशेखरप्रमुखैः । गणभृद्भिर्गुणवद्भिर्ग्रन्थोऽयं शोधितः सकृपैः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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