Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 09 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 6
________________ श्रीस्तंभनाधीशप्रबन्धसंग्रह : भूमिका -विजयशीलचन्द्रसूरि __ "स्तंभनाधीशप्रबन्धसंग्रह" ए संभवतः नागेन्द्रगच्छीय अने 'प्रबन्धचिन्तामणि' कार श्रीमेरुतुंगाचार्यनी एक विद्वद्भोग्य प्रगल्भ रचना छे. देखीती रीते ज, आ रचनामां ऐतिहासिक करतां पौराणिक विषयवस्तुनुं प्राचुर्य तथा प्राधान्य छे. कर्ता पोते पण "स्तम्भनेन्द्रपुराण" नामथी आने ओळखावे छे ते आ संदर्भमां नोंधवा योग्य छे (प्र. २३). जो के पौराणिक विषयनिरूपणमां पण रसिकता तो भारोभार छलकाय छे. शब्दोनी भभक, भाषानी झमक, स्थळो तथा व्यक्तिओनां नामोनुं वैविध्य-आ बधुं कर्ताना विशद पाण्डित्यनो संकेत आपनाएं छे. वळी, पुराणकथा होवा छतां वर्णित प्रसंगो लगभग अपूर्व छे : अन्य जैन ग्रंथो के पुराणग्रंथोमां भाग्ये ज आ प्रसंगो जोवा मळे. घडीभर शंका थाय के आ रचना निगममतनी तो नहि होय ने ? ए हदे आमां नावीन्य छे. परंतु, नवीन होवा छतां आ वातोने साव अप्रमाणिक मानी लेवानुं साहस करी शकाय तेम नथी. तेनां ३ कारणो छ : १. कर्ता पोते आ रचनाना आधार लेखे जे साधनोनो उल्लेख करे छे ते ध्यानार्ह छे : 'शंखिनीमत, 'दूषमगण्डिकाबन्ध, भैरवीचरित, “विद्याकल्प, 'मन्त्रसार, 'श्रीबिन्दुसारचूला, “योनिप्राभृतकणिका, 'देवमहिमसागर, 'प्राभृतपटल; उपरांत, देवेन्द्रस्तव (प्रबन्ध - ३२); आ बधां ग्रंथोनां नामो छे, जेमांना एक-बेने बाद करतां एक पण ग्रंथ आजे कोई स्वरूपे लभ्य लागता नथी. मात्र 'देवेन्द्रस्तव' उपलब्ध छे, अने 'योनिप्राभृत'नी एक खण्डित प्रति ज मात्र (पूना BOIR) उपलब्ध छे. संभव छे के आ बधा ग्रंथ ते समये ग्रंथकारने हाथवगा होय अने कालांतरे कालग्रस्त बन्या होय. जो के कर्ता पासे बीजां पण साधनो छे ज, जे आभ्यंतर वा अंगत गणाय तेवां छे : 'सद्गुरुना मुखे सांभळीने, 'बहुश्रुतो द्वारा प्राप्त 'आदेश' ने आधारे, 'पद्मावतीदेवीनी आराधनाना प्रभावे (प्रबन्ध ३१मां पण जुओ), "सरस्वतीदेवीनी कृपाथी तथा अन्य वार्ताकार विद्वानोना सहकारथी-एम ५ आधारो आ रचना माटे कर्ताए मेळव्या छे. २. आ रचना नवीन अने पूर्वसूरिओनी ग्रंथपरंपराथी साव भिन्न होवानुं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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