Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 5
________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 गतांक से आगे....... तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में अजीव तत्त्व एवं अन्य दर्शनों से तुलना • डॉ. जयकुमार जैन १. पुद्गल द्रव्य : भट्ट अकलंक देव ने तत्त्वार्थवार्तिक में पुद्गल की अन्वर्थ निरुक्ति करते हए कहा है - 'परणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात पदगलाः।२४ अर्थात जो परण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं। यतः यह मूर्त द्रव्य भेद और संघात के कारण पूरण और गलन को प्राप्त होता है, अतः इसकी पुद्गल अन्वर्थ संज्ञा है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने भी ‘त्रिकालपूरणगलनात् पुद्गला इति'२५ पुद्गल का निर्वचन किया है। अर्थात् तीनों कालों में इसमें पूरण या गलन होता रहता है, अतः यह पुद्गल है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे.एस. जवेरी ने पुद्गल की परिभाषा करे हुए लिखा है - 'पुद् Means to combine and गल Means to separate, hence the meaning of the word uit is that which undergoes modifications by combination and separation. In the word of modern science we can say that which is fissionable and fuisionable is पुद्गल।'२६ गुणों की अपेक्षा पुद्गलों का स्वरूप बतलाते हुए आचार्य उमास्वामी ने कहा है- 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।२७ अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं। पुद्गल की परिभाषा को प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है - 'उपभोज्जमिंदिएहि य इंदियकाया मणो य कम्माणि। जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पोग्गलं जाणं।।२८ अर्थात इन्द्रियों के द्वारा उपभोग्य विषय. पाँचों इन्द्रियाँ. पाँचों शरीर. मन, कर्म तथा जो कुछ भी मूर्त है, वह सब पुद्गल भेद समझना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने रूपी पदार्थ को पुद्गल कहा है- 'रूपिणः पुद्गलाः।' रूप शब्द के यद्यपि स्वभाव, तादात्म्य आदि अनेक अर्थ हैं, किन्तुPage Navigation
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