Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ किरण ८] प्रतिमा लेख संग्रह और उसका महत्व ४२६ पतिमामें तो लेखान्त-मार्गमें सुन्दर चित्र पालेखित श्वेताम्बर संप्रदायकी मूर्तिके अंत भागमें भी 'प्रणहोता है। ऐसे चित्र मैंने श्वेताम्बर सम्पदायान्तर्गत मंति' शब्दका उल्लेख पाया जाता है लेकिन वह अपअंचलगच्छके प्राचार्यों की प्रतिष्ठित की हुई मूर्तियोंमें वादिक है । इसके सिवाय दिगम्बर शिला व प्रतिमा विशेषरूपसे देखे हैं । धातु पतिमा लेख इतने स्पष्ट लेखोंमें अधिकतर शक संवत्का उल्लेख पाया जाता और सुवाच्य अक्षरोंमें लिखे होते हैं कि मानो सुन्दर है, जब कि श्वेताम्बर लेखोंमे प्रायः विक्रम संवतका । हस्तलिखित पुस्तक ही हो । अर्थात् हस्त-लिखित इस विषयमें मैंने एक विद्वान से पूछा था, उन्होंने ऐसा पुस्तकोंके अक्षरोंसे ये प्रतिमालेख बड़ी सहूलियतसे कहा कि वि० सं० की ऐतिहासिकतामें विद्वानोंको मुकाबला कर सकते हैं। बड़ा भारी शक हैं और शक संवत्-प्रर्वतक महाराजा धातु-प्रतिमालेख श्वेताम्बर व दिगम्बर भेदकी सातवाहन जैनी थे, इसीलिये शक संवत्का उल्लेख वजहसे दो भागोंमें विभाजित है। पश्चिम भारत व बड़े गौरवसे किया जाता है। सातवाहनके जैनत्वके राजपूताने के अधिकतर प्रतिमालेख श्वेताम्बर संप्र- विषयमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु वि० सं० को दायसे संबन्ध रखते हैं और दक्षिण भारतके लेख अनैतिहासिक बतलाना नितांत गलती जान पड़ता है। विशेषतः दिगम्बर संप्रदायसे । इसका प्रधान कारण हाँ! ऐसा हो सकता है कि दक्षिणमें शक संवत्का यही जान पड़ता है कि प्राचीनकालसे पश्चिमी भारत उपयोग ज्यादा किया जाता हो और गुजरातमें में श्वेताम्बरोंका और दक्षिण भारतमें दिगम्बरोंका विक्रमका । प्रभुत्व रहा है। प्रतिमालेखसंग्रहको देने पूर्व हम यहां पर एक यहाँ जो लेख मैं आपके सन्मुख उपस्थित कर बात और प्रकट करना चाहते हैं वह यह कि प्रतिमारहा हूँ वे सब दिगंबर संप्रदायसे संबंध रखते हैं। लेख-संग्रहकी प्रणाली हाल में ही शुरु नहीं हुई बल्कि प्रतिमा लेखोंका जो लिपिकौशल्य श्वेताम्बर मूर्तियों में पूर्वकाल में भी वह पाई जाती है । आजसे कोई १०० पाया जाता है वह खेद है कि दिगंबर मूर्तियोंमें मेरे वर्ष पहिले वि० सं० १९०० में एक यतिजी सिद्धाचल देखने में नहीं आया । यह बात ऐतिहासिक होनेसे जी की यात्राकं लिये गये हुए थे उन्होंने तहांके कई यहां लिखनी पड़ती है। एक बात और भी है और शिला व प्रतिमा-लेखोंकी ज्योंकी त्यों (कापीटकापी) वह यह कि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर संप्रदायोंमें पतिलिपि की थी, वह कापी ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े प्रतिमा व शिलालेखोंकी लेखन - प्रणाली भिन्न २ महत्त्वकी है और मेरे संग्रहमें सुरक्षित है । एक और मालूम होती है। पहले संवत्, उपदेशक भट्टारकका भी प्राचीन लेखोंकी प्रतिलिपिकी प्रति मेरे संग्रहमें नाम, पीछे मूर्ति बनवाने वालेका नाम व अंतमें है। जिसमेंके लेख महिमापुर-मंदिर-पशरित और भगवानके नामके बाद 'नित्यं प्रणमंति' यह प्रणाली बीकानेर नरेश सूरतसिंहजीके साथ विशेष संबन्ध दि० संप्रदायकी है। श्वे० संप्रदायमें संवत् निर्देश रखते हैं । पतिलिपि करने वाला क्षमा-कल्याणजीकी करनेके बाद प्रतिमा बनवाने वालेका, भगवानका, परंपराका होना चाहिए, क्योंकि इसमें उक्त मुनिजी प्रतिष्ठित आचार्य व नगरका नाम आता है । यद्यपि की पतिष्ठित की हुई मूर्तियों के लेखोंकी बाहुलता है।

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