Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 25
________________ किरण ८ ] इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि अन्यत्र शंका उठानेका स्थान उपयुक्त न होनेसे दूसरी जगह शंका नहीं उठाई। यहां 'अवस्थितानि' सूत्र के प्रकरण में द्रव्योंके छह पनेका कथन आया और ऊपर सूत्रानु पूर्वी रचना में तथा राजवार्तिक भाष्य में द्रव्यों के पंचस्व का कथन आया; अतः यहाँ शंकाका अवकाश होने से शंका उठाई गई, दूसी जगह वैसी शंकाका स्थान उपयुक्त न होनेसे नहीं उठाई गई। 'जीवाश्च' आदि सूत्र वैसी शंकाके उपयुक्त स्थान तो तब कहे जाते जब उनमें वैसा प्रसंग आता । वैसे प्रसंगके लानेका कार्य मेरे आपके हाथकी बात तो है नहीं, ग्रन्थ कर्ता को जिस जगह जैसा उपयुक्त जँचा वहाँ वैसा प्रकरण ले आए । अन्तमें प्रा० सा० लिखते हैं कि - " पूर्व लेख में बताया जा चुका है कि द्रव्य पंचत्वकी शंका दिगम्बरों के यहाँ इसलिये नहीं बन सकती कि उनके यहाँ तो निश्चित रूप से छः द्रव्य माने गये हैं, जबकि श्वे० उत्तरकालीन प्रन्थों में भी 'पंचद्रव्य' और 'षट्द्रव्य' की आगमगत दोनों मान्यताएँ मौजूद हैं ।" परन्तु यह लिखते हुए वे इस बातको भुला देते हैं कि उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया है कि उमास्वाति कालसहित छहों द्रव्य मानते हैं और अपने पिछले लेखा नं० ३ में 'सर्व षट्कं षडद्रव्यावरोधात्' इस भाष्य - वाक्य के द्वारा उस मान्यता की पुष्टि भी की है; तब वह पंचत्व की शंका भाष्य के ऊपर भी कैसे बन सकती है ? सयु० स० पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता. संशोधन गत किरणमें 'महाकवि पुष्पदन्त' नामका लेख कुछ अशुद्ध छप गया है। मात्रादिकके टूट जानेसे जो साधारण अशुद्धियां हुई हैं, उन्हें छोड़ कर शेष कुछ महत्वकी - द्वियोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। पाठकगण इसके अनुसार अपनी अपनी प्रतिमें सुधार कर लेवें :पृ० कालम पंक्ति अशुद्ध ४०८ 9 १८ रोहिणीखेड ४०६ २ 8 काव्य ४१० , १८ करिसवहि ४११ 9 २८ सरक शुद्ध रोहनखेड कठव करिसर वहि सरस्वती समान मान्यता के होने पर एक स्थल पर उस शंकाका बन सकना और दूसरे पर न बन सकना बतलाना कथन के पूर्वापरविरोधको सूचित करता है। इसके सिवाय, मैंन 'मयुक्तिक सम्मति' नामके अपने पूर्व लेख ( अनेकान्त पृ० ८९, ९० ) में दिगम्बर सूत्र पाठके सम्बन्धमें इस शंका-समाधान के बन सकनेका जो स्पष्टीकरण किया था तथा औचित्य बतलाया था उस पर भी आपने कोई ध्यान नहीं दिया । और न यही सोचा कि एक ग्रन्थकार जो अपने मत या आम्नाय को लेकर प्रन्थकी रचना कर रहा है वह दूसरे मत अथवा आम्नाय वालों की खुद उन्हींके मत, आम्नाय अथवा प्रन्थ पर की गई शंकाकी संगति बिठलाता हुआ समाधान अपने ग्रन्थ में क्यों करेगा ? – उसे उसकी क्या जरूरत पड़ी है ? ऐसी हालत में आपका उक्त लिखना कुछ भी मूल्य नहीं रखता । ऊपर के इस सब विवेचनसे स्पष्ट है कि राजवार्तिकका उक्त शंका-समाधान सूत्ररचना तथा राजवार्तिकके भाष्यसे सम्बन्ध रखता है, उसमें श्वे० भाष्यका जो स्वप्न देखा जाता है, वह ग्रन्थको सम्बद्ध रूप से लगानेकी अजानकारी ही प्रकट करता है, और इसलिये इस तीसरे प्रकरण में प्रोफे० साहबने उत्तरका जो प्रयत्न किया है उसमें भी कुछ दम और सार नहीं है । (क्रमश:) २ ४ ४१२ कुरूप ४१३ १ २२ मणि 23 ร १ " ४१४ १ ४१५ २ ४१६ १ ३ कुन्दका ४१६ २ २१ ४१६ २ २५ ४१७ १ ३५ ४२० २ ३२ २३ कवयादियसहं कइवयदियहहं २६, २७ सुहयउ ३ भरता २३ सबसे शुद्धकुरूप मर्णे सहासता सुहयरु भरहा सबसे अधिक कुन्दग्वा गुणैर्भासिते गुणैर्भासिसो श्यामप्रधानः श्यामः प्रधानः धनधवलताश्चया धनधवलताश्रया सहायता - प्रकाशक

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